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आध्यात्मिक आलोक
507 शिक्षे ! तुम्हारा नाश हो तू नौकरी के हित बनी,
लो मूर्खत ! जीती रहो रक्षक तुम्हारे हैं धनी ।। कई अज्ञान ज्ञानाराधना का विरोध एवं उपहास करते हुए कहते हैं- “जो पढ़तव्यं सो मरतव्यं, ना पढ़तव्यं सो मरतव्यं, दांत कटाकट किं कर्तव्यं, यों मरतव्यं त्यों मरतव्यम्" कोई कहते हैं
अणभणिया घोड़े चढ़े, भणिया मागे भीख अपढ़ लोगों ने राज्यों की स्थापना की है। पढ़ाई-लिखाई में क्या धरा है, होता वही है जो भाग्य में लिखा होता है। इस प्रकार इतिहास, तर्क और दर्शनशास्त्र तक का सहारा लिया जाता है मूर्खता के समर्थन के लिये।
भारतवर्ष में अज्ञानवादी अत्यन्त प्राचीनकाल में भी थे। वे अज्ञान को ही कल्याणकारी मानते थे और ज्ञान को अनर्थों का मूल। उनके मत से अज्ञान ही मुक्ति का मूल था। आज व्यवस्थित रूप में यह अज्ञानवादी सम्प्रदाय भले ही न हो, तथापि उसके विखरे हुए विचार आज भी कई लोगों के दिमाग में घर किये हुए हैं। अज्ञानवाद का प्रभाव किसी न किसी रूप में आज भी मौजूद है। मगर अज्ञानवादियों को सोचना चाहिये कि वे अज्ञान की श्रेष्ठता की स्थापना ज्ञानपूर्वक करते हैं या अज्ञानपूर्वक ? अगर ज्ञानपूर्वक करते हैं तो फिर ज्ञान ही उपयोगी और उत्तम ठहरा जिसके द्वारा अज्ञानवाद का समर्थन किया जाता है। यदि अज्ञानपूर्वक अज्ञानवाद का समर्थन किया जाय तो उसका मूल्य ही कुछ नहीं रहता। विवेकीजन उसे स्वीकार नहीं कर सकते। ___ हां, तो सेठानी के कहने से लड़के पढ़ने नहीं गये। दो चार दिन बीत गये। शिक्षक ने इस बात की सूचना दी तो सेठ ने सेठानी से पूछा। सेठानी आगबबूला हो गयी। बोली-"मुझे क्यों लांछन लगाते हो। लड़के तुम्हारे, लड़कियां तुम्हारी। तुम जानो तुम्हारा काम जाने।"
पति-पत्नि के बीच इस बात को लेकर खींचतान बढ़ गयी । खींचतान ने कलह का रूप धारण किया और फिर पत्नी ने अपने पति पर कुंडी से प्रहार कर दिया ।
आचार्य बोले-"गुणमंजरी वही सन्दरी है। ज्ञान के प्रति तिरस्कार का भाव होने से यह गूंगी के रूप में जन्मी है ।"
राजा अजितसेन ने भी अपने पुत्र वरदत्त का पूर्व वृत्तान्त पूछा । कहाभगवन्! अनुग्रह करके बतलाइये कि राजकुल में उत्पन्न होकर भी यह निरक्षर और कोढ़ी क्यों है?"