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आध्यात्मिक आलोक
विद्यार्थयों को श्रुत-ग्रन्थ देना आर्थिक सहयोग देना, धार्मिक ग्रन्धों का सर्वसाधारण में वितरण करना, पाठशालाएं चलाना, चलाने वालों को सहयोग देना, स्वयं प्राप्त ज्ञान का दूसरों को लाभ देना आदि। ये सब ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के कारण हैं । __ विचारणीय है कि जब लौकिक ज्ञान प्राप्ति में बाधा पहुंचाने वाली गुणमंजरी को गूंगी बनना पड़ा तो धार्मिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान में बाधा डालने वाले को कितना प्रगाढ़ कर्मबन्ध होगा ? उसे कितना भयानक फल भुगतना पड़ेगा ? इसीलिये भगवान महावीर ने कहा-“हे मानव ! तू अज्ञान के चक्र से बाहर निकल और ज्ञान की आराधना में लग ! ज्ञान ही तेरा असली स्वरूप है। उसे भूलकर क्यों पर-रूप में झूल रहा है ? जो अपने स्वरूप को नहीं जानता उसका बाहरी ज्ञान निरर्थक है।" ____यह ज्ञानपंचमी अपने पर्व श्रुतज्ञान के अभ्युदय और विकास को प्रेरणा देने के लिये है। आज के दिन श्रुत के अभ्यास, प्रचार और प्रसार का संकल्प करना चाहिये। द्रव्य और भाव, दोनों प्रकार से श्रुत की रक्षा करने का प्रयत्न करना चाहिये। आज ज्ञान के प्रति जो आदर वृत्ति मन्द पड़ी हुई है, उसे जागृत करना चाहिये। और द्रव्य से ज्ञान दान करना चाहिये। ऐसा करने से इहलोक-परलोक में आत्मा को अपूर्व ज्योति प्राप्त होगी और शासन एवं समाज का अभ्युदय होगा ।
किसी ग्रन्थ, शास्त्र या पोथी की सवारी निकाल देना सामाजिक प्रदर्शन है इससे केवल मानसिक सन्तोष प्राप्त किया जा सकता है। असली लाभ तो ज्ञान के प्रचार से होगा । ज्ञानपंचमी के दिन श्रुत की पूजा कर लेना, ज्ञान-मन्दिरों के पट खोल कर पुस्तकों के प्रदर्शन कर लेना और फिर वर्ष भर के लिये उन्हें ताले में बन्द कर देना श्रुतभक्ति नहीं है। ज्ञानी महापुरुषों ने जिस महान् उद्देश्य को सामने रखकर श्रुत का निर्माण किया, उस उद्देश्य को स्मरण करके उसकी पूर्ति करना हमारा कर्तव्य और उत्तरदायित्व है।
मैंने शरणार्थियों के एक मोहल्ले में एक बार देखा-गुरुद्वारा से गुरु ग्रन्थ साहब की सवारी निकाली जा रही है। ग्रन्थ साहब को जरी के कपड़े में लपेट कर एक सरदार अपने मस्तक पर रख कर ले जा रहे हैं इस प्रकार मस्तक पर रखकर अथवा हाथी के होदे पर सवार करके जुलूस निकालना वास्तविक श्रुतपूजा नहीं है। इससे तो यही प्रदर्शित होता है कि समाज की उस ग्रन्ध के प्रति कैसी भावना है, यह दूसरे भाइयों के चित्त को उस ओर खींचने का साधन है किसी भी ग्रन्थ की सच्ची भक्ति तो उसके सम्यक् पठन-पाठन में है।
भारतीय जैन एवं जैनेतर साहित्य के संरक्षण में जैन समाज का असाधारण योगदान रहा है। उन्होंने ज्ञानोपासना की गहरी लगन से साहित्य भण्डार बनाये और ..