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आध्यात्मिक आलोक
503 किया जाय । इस तरह दोहरे कर्तव्य से समस्त कर्म क्षीण हो जाते हैं और आत्मा अपनी स्वाभाविक मूल अवस्था प्राप्त कर लेती है। यही मुक्ति कहलाती है।
वही ज्ञान मुक्ति का कारण होता है जो सम्यक् हो। यों तो ज्ञान का आविर्भाव ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम अथवा क्षय से होता है, मगर सम्यग्ज्ञान के लिए मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के क्षय, क्षयोपशम या उपशम की भी आवश्यकता होती है। ज्ञानावरण का क्षयोपशम कितना ही हो जाय, यदि मिथ्यात्व मोह का उदय हुआ तो वह ज्ञान मोक्ष की दृष्टि से कुज्ञान ही रहेगा।
अनन्त काल से यह आत्मा संसार में भ्रमण कर रही है। अब तक उसने अपने शुद्ध स्वरूप को नहीं पाया। जब बाह्य और अन्तरंग निमित्त मिलते हैं तब सम्यग्ज्ञान, दर्शन आदि की प्राप्ति होती है और जिसे प्राप्ति होती है उसका परम कल्याण हो जाता है।
बाह्य निमित्त किसी भाव की जागृति में किस प्रकार कारण बनता है, यह समझ लेना आवश्यक है। सोने की डली लोभ रूप विकार की उत्पत्ति में कारण है। किन्तु सोने और चांदी की राशि एक जगह एकत्र कर दी जाय और कोई गाय या बैल वहां से निकले तो उस राशि के प्रति उनके मन में लोभ नहीं जगेगा। वे उसे पैरों तले कुचल देंगे या बिखेर देंगे। इसके विपरीत घास, फल, सब्जी, खली आदि वस्तुएं पड़ी हों तो गाय-बैल के मन में लोभ उत्पन्न होगा और वे उन्हें खा जाएंगे। इस प्रकार घास आदि उनके लोभ को जगाने में निमित्त बने, मगर सोने की डली निमित्त नहीं बनी । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि बाह्य कारण एकान्त कारण नहीं है। इसी प्रकार अन्तरंग कारण भी अकेला कार्यजनक नहीं होता। दोनों का समुचित समन्वय ही कार्य को उत्पन्न करता है।
गृहस्थ आनन्द को राह चलते चलते सोने, चांदी, हीरे, जवाहरात की ढेरी मिल जाती तो उसके मन में लोभ उत्पन्न नहीं होता। ये वस्तुएं उसके मन को विकृत नहीं कर सकती थीं क्योंकि उसने श्रद्धापूर्वक परिग्रह परिमाण व्रत ग्रहण कर लिया था एवं उस पर वह दृढ़ता से आचरण कर रहा था । मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होने के लिये मोह को क्षीण करना आवश्यक है। इसके लिये ज्ञानाचार की आवश्यकता है। आचार पांच माने गये हैं। उनमें प्रथम ज्ञानाचार और अन्तिम वीर्याचार है। ज्ञान यदि विधिपूर्वक आचार के साथ प्राप्त किया जाय तो वह जीवनशोधक बनेगा। अगर ज्ञान की आराधना के बदले विराधना की जाय तो अशान्ति होगी और अन्धकार में भटकना होगा। ज्ञान की आराधना करना सिखाया जाता है, विराधना करना नहीं । विराधना