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[७५] श्रुतपंचमी
दशवकालिक सूत्र प्रधानतः श्रमण निर्ग्रन्थ के आचार का प्रतिपादन करता है किन्तु जैन धर्म या दर्शन में कहीं भी एकान्त वाद को स्वीकार नहीं किया गया है। यही कारण है कि आचार के प्रतिपादक शास्त्र में भी अत्यन्त प्रभावपूर्ण शब्दों में ज्ञान का महत्व प्रदर्शित किया गया है। प्रारम्भ में कहा गया है
पढम नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए । सभी संयमवान पुरुष पहले वस्तुस्वरूप को यथार्थ रूप में समझते हैं और फिर तदनुसार आचरण करते हैं। यहां 'दया' शब्द समन आचार को उपलक्षित करता है। दशवकालिक में अन्यत्र कहा गया है
अण्णाणी किं काही, किंवा नाही सैयपावगं । अज्ञानी वैचारा कर ही क्या सकता है। उसे भले-बुरे का विवेक कैसे प्राप्त हो सकता है?
यह अत्यन्त विराट् दिखलाई देने वाला जगत् वस्तुतः दो ही तत्त्वों का विस्तार है। इसके मूल में जीव और अजीव तत्व ही हैं । अतएव समीचीन रूप से जीव और अजीव को जान लेना सम्पूर्ण सृष्टि के स्वरूप को समझ लेना है। मगर यही ज्ञान बहुतों को नहीं होता। कुछ दार्शनिक इस भ्रम में रहे हैं कि जगत् में एक जीव तत्त्व ही है, उससे भिन्न किसी तत्त्व का सत्त्व नहीं है। इससे एकदम विपरीत कतिपय लोगों की भ्रान्त धारणा है कि जीव कोई तत्व नहीं है-सब कुछ अजीव ही अजीव है अर्थात् जड़ भूतों के सिदाय चेतन तत्व की सत्ता नहीं है। कोई दोनों तत्त्वों की पृथक् सत्ता स्वीकार करते हुए भी अज्ञान के कारण जीव को सही रूप में नहीं समझ पाते और अव्यक्त चेतना वाले जीवों को जीव ही नहीं समझते। ईसाइयों के मतानुसार गाय जैसे समझदार पशु में भी आत्मा नहीं है। बौद्ध आदि वृक्ष आदि