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आध्यात्मिक आलोक कुछ वह जानता है उसे गोपन करके रखें और कोई न जान सके कि वह कितना जानता है । मगर स्थूलभद्र में यह गोपनक्षमता नहीं रही । अभी क्या हुआ है ? आगे तो बड़ी अद्भुत विद्याएँ आने वाली हैं | मगर स्थूलभद्र को क्या दोष दिया जाय, यह काल का विषम प्रभाव है। आगे और अधिक बुरा समय आने वाला है।'
गोपनीय विद्या के लिए सुपात्र होना चाहिए | अपात्र को देना ऐसा ही है जैसे बच्चे के हाथ में नंगी तलवार या गोली-भरा रिवाल्वर देना । इससे स्व पर दोनों की हानि होती है-विद्यावान् की भी तथा दूसरों की भी । अतएव गोपनीय विद्याओं को अत्यन्त सुरक्षित रखा जाता है । आज का विज्ञान अपात्रों के हाथ में पड़ कर जगत को प्रलय की ओर ले जा रहा है । अनार्यों के हाथ लगा भौतिक विज्ञान विध्वंसक कार्यों में प्रयुक्त हो रहा है । भौतिक तत्त्व के समान अगर कुछ अद्भुत विद्याएँ भी उन्हें मिल जाएँ तो अतीव हानिजनक सिद्ध हो सकती हैं । अतएव पात्र देखकर ही विद्या दी जानी चाहिए | अपात्र विद्या प्राप्त करके या तो अपना पेट भरने का साधन बना लेगा या दूसरों को आतंकित करेगा, सताएगा । इसी कारण सत्पुरुष विद्या को गोपनीय धन कहते हैं और फिर अतिशय उच्च-कोटि की विद्या तो विशेष रूप से गोपनीय होती है ।
आचार्य भद्रबाहु चौदह पूर्वो के ज्ञाता थे । उनके मन में लहर उठी-क्या पूर्वो का ज्ञान देना बंद कर देना चाहिए ? एक विद्या, जीवन को ऊँचा उठाने के लिए जिस किसी को भी दी जा सकती है । श्रोता चाहे सजग हो या न हो, चाहे क्रियाशील हो या निष्क्रिय हो, सभी को दी जा सकती है । मोक्ष-साधना सम्बन्धी ज्ञान देने में पात्र-अपात्र का विचार नहीं किया जाता । किन्तु ज्ञेय विषयों का ज्ञान देने का जहाँ प्रश्न हो, वहाँ पात्र-अपात्र की परीक्षा करना आवश्यक है । जो पात्र हो और उस ज्ञान को पचा सकता हो उसी को वह ज्ञान देना चाहिए । बालक को गरिष्ठ भोजन खिलाना उसके कोमल स्वास्थ्य को हानि पहुँचाना है । इससे उसे लाभ की जगह रोग हो जाता है । इसी प्रकार अपात्र को अज्ञेय विषयक विद्या देना उसके लिए अहित कर है और दूसरों के लिए भी ।
ज्ञान एक रसायन है, जिससे आत्मा की शक्ति बढ़ती है इससे इस लोक और परलोक दोनों में साधक का परम कल्याण होता है । जो पात्रता प्राप्त करके ज्ञान-रसायन का सेवन करेंगे, निश्चय ही उनका अक्षय कल्याण होगा।