Book Title: Aadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Author(s): Hastimal Maharaj, Shashikant Jha
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 496
________________ 488 आध्यात्मिक आलोक ऐसा समझते हैं कि जैनधर्म में कीड़ी-मकोड़े की दया पर अधिक जोर दिया गया है, किन्तु जो आनन्द श्रावक के द्वारा ग्रहीत व्रतों का विवरण पढ़ेंगे और उसे समझने का प्रयत्न करेंगे, उन्हें स्पष्ट विदित होगा कि इस आरोप में लेश मात्र भी सचाई नहीं है। जैनाचार के प्रणेताओं ने अपनी दीर्घ और सूक्ष्म दृष्टि से बहुत सुन्दर और सुसम्बद्ध आचार की योजना की है । इसके अनुसार जीवन यापन करने वाला मनुष्य अपने जीवन को पूर्ण रूप से सुखमय, शान्तिमय और फलमय बना सकता है और उसके किसी भी लौकिक कार्य में व्याघात नहीं होता। ___ आचार का मूल विवेक है । चाहे कोई श्रमण हो अथवा श्रमणोपासक, उसकी प्रत्येक क्रिया विवेकयुत होनी चाहिए । जो विवेक का प्रदीप सामने रखकर चलेगा, उसे गलत रास्ते पर चल कर या ठोकर खाकर भटकना नहीं पड़ेगा । वह द्रुतगति से चले या मन्दगति से, पर कभी न कभी लक्ष्य तक पहुँच ही जाएगा। पौषधव्रत की आराधना एक प्रकार का अभ्यास है जिसे साधक अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाने का प्रयत्न करता है । अतएव पौषध को शारीरिक विश्रान्ति का साधन नहीं समझना चाहिए । निष्क्रिय होकर प्रमाद में समय व्यतीत करना अथवा निरर्थक बातें करना पौषध व्रत का सम्यक् पालन नहीं है। इस व्रत के समय तो प्रतिक्षण आत्मा के प्रति सजगता होनी चाहिए । दूसरा कोई देखने वाला हो अथवा न हो, फिर भी व्रत की आराधना आन्तरिक श्रद्धा और प्रीति के साथ करनी चाहिए। ऐसा किये बिना रसानुभूति नहीं होगी। रसानुभूति तो विधिपूर्वक भीतरी लगन के साथ पालन करने से ही होगी । साधना में आनन्द की अनुभूति होनी चाहिए । जब आनन्द की अनुभूति होने लगती है तो मनुष्य साधना करने के लिए बार-बार उत्साहित और उत्कण्ठित होता है। ___ गृहस्थ आनन्द ने महावीर स्वामी के चरणों में उपस्थित होकर अंगीकार किये व्रतों के अतिक्रमणों को समझ लिया और दृढ़ संकल्प किया कि मुझे इन सबसे बचना ___ यदि पूरी वस्तु प्राप्त न हो सके तो आधी में सन्तोष किया जाता है, किन्तु जिसे पूरी प्राप्त हो वह आधी के लिए क्यों ललचाएगा? गृहस्थ पर्वदिवसों में विशिष्ट साधना को अपना कर आनन्द पाता है, किन्तु पूर्ण साधना में निरत मुनि के लिए तो यावज्जीवन पूर्ण साधना ही रहती है। उनका जीवन सर्वविरति साधना में लगा रहता मुनि आराधना के तीन वर्ग बना लेते हैं-७) ज्ञान (२) दर्शन और (B) चारित्र । वे इन तीनों की साधना में अपनी समग्र शक्ति लगा देते हैं । विराधना से उनके मन में हलचल पैदा हो जाती है ।

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