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आध्यात्मिक आलोक
487 यद्यपि पूर्वाचार्यों ने शारीरिक सत्त्व की कमी आदि कारणों से प्रशस्त इरादे से ही छूट दी किन्तु वह छूट क्रमश: बढ़ती ही चली गई । मानव स्वभाव की यह दुर्बलता सर्व-विदित है कि छूट जब मिलती है तो शिथिलता बढ़ती ही जाती है ।
पोषधव्रत के भी पांच अतिचार हैं, जिन्हें जानकर त्यागना चाहिए । वे इस प्रकार हैं:
७) बिस्तर अच्छी तरह देखे बिना सोना : पूर्वकाल में राज घराने के लोग और श्रीमन्तजन भी घास आदि पर सोया करते थे । उसे देखने-भालने की विशेष आवश्यकता रहती है । ठीक तरह देख-भाल न करने से सूक्ष्म जन्तुओं के कुचल जाने की और मर जाने की सम्भावना रहती है । अतएव बिस्तर पर लेटने और सोने से पूर्व उसे सावधानी के साथ देख लेना प्रत्येक दयाप्रेमी का कर्तव्य है। जो इस कर्त्तव्य के प्रति उपेक्षा करता है वह अपने पौषधव्रत को दूषित करता है ।
(0 आसन को भलीभाँति देखे बिना बैठना : यह भी इस व्रत का अतिचार है । इसके सेवन से भी वही हानि होती है जो बिस्तर को न देखने से होती है।
६) भूमि देखे बिना लघुशंका-दीर्घशंका करना : मलमूत्र का त्याग करने से पहले भूमि का भलीभाँति निरीक्षण कर लेना आवश्यक है। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि भूमि में रंध्र, छिद्र, दरार या बिल आदि न हों तथा छोटे-मोटे जीव-जन्तु न हो। बहुत बार जमीन पोली होती है और कई जन्तु सर्दी गर्मी या भय से बचने के लिए उसके भीतर आश्रय लेकर स्थित होते हैं। उन्हें किसी प्रकार अपनी ओर से बाधा न पहुंचे, इस बात की सावधानी रखना पौषधव्रती का कर्तव्य है।
४) पौषधव्रत का सम्यक् प्रकार से विधिपूर्वक पालन न करना :, यह भी व्रत की मर्यादा को भंग करना है, अतएव यह भी अतिचारों में परिगणित है ।
(१) निद्रा आदि प्रमाद में समय नष्ट करना : यह भी अतिचार है । इस व्रत के अतिचारों पर विचार करने से यह स्पष्ट हुए बिना नहीं रहता कि श्रावक की चर्या किस प्रकार की होनी चाहिए । जीवन के क्या छोटे और क्या बड़े, सभी व्यवहारों में उसे सावधान रहना चाहिए और ऐसा अभ्यास करना चाहिए कि उसके द्वारा किसी भी प्राणी को निरर्थक पीड़ा न पहुँचे । जो छोटे-छोटे जीव-जन्तुओं की रक्षा करने की सावधानी रखेगा और उन्हें भी पीड़ा पहुँचाने से बचेगा, वह अधिक विकसित बड़े जीवों की हिंसा कदापि नहीं करेगा । कतिपय लोग, जिन्होंने जैन धर्म में प्रतिपादित आचार पद्धति का और विशेषतः अहिंसा का अध्ययन नहीं किया है,