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आध्यात्मिक आलोक इस दशा में पहुँचना और निरन्तर इसकी अनुभूति में रमण करना आसान नहीं है। इसके लिए दीर्घकालीन अभ्यास की आवश्यकता है । वह अभ्यास वर्तमान जीवन का भी हो सकता है और पूर्वभवों का संचित भी हो सकता है । गजसुकुमार मुनि ने भीषणतम उपसर्ग सहन करने में जो विस्मयजनक दृढ़ता प्रदर्शित की, वह उनके पूर्वार्जित संस्कारों का ही परिणाम कहा जा सकता है । प्रत्येक आस्तिक इस तथ्य को स्वीकार करता है कि किसी भी जीव का जब जन्म होता है तो वह जन्म-जन्मांतरों के संस्कार साथ लेकर ही जन्मता है । आत्मा की जो यात्रा अपनी मंजिल तक पहुँचने के लिए जारी है, एक-एक जन्म उसका एक-एक पड़ाव ही समझना चाहिए।
इन्हीं सब तथ्यों को सन्मुख रखकर महापुरुषों ने आचार-शास्त्र की योजना की है । पौषधोपवास भी इसी योजना की एक कड़ी है। परिमितकालीन पौषधोपवास की साधना भी आत्मा के पूर्वोक्त संस्कार को सबल बनाती है और देहाध्यास से उसे ऊपर उठाने में सहायक होती है । इस प्रकार आत्मा के गुणों को पुष्ट करने वाले सभी साधन पौषध हैं।
भगवान महावीर ने पौषधोपवास के पांच अतिचार आनन्द को बतलाए और आनन्द ने उनसे बचते रह कर साधना करने की प्रतिज्ञा की ।
__ यह सत्य है कि आत्मा शरीर से पृथक है, मगर यह भी असत्य नहीं कि आत्मा जब तक अपने असली रूप में न आ जावे तब तक शरीर के साथ ही, बल्कि उसके सहारे ही रहता है और शरीर का आधार अन्न-पानी है । 'अत्रं वै प्राणाः' अर्थात् अन्न ही प्राण हैं-अन्न के अभाव में जीवन लम्बे समय तक कायम नहीं रह सकता । कोई भी जीवधारी सदा अन्न के बिना काम नहीं चला सकता । भगवान् ने अन्न ग्रहण करने का निषेध भी नहीं किया है, अलबत्ता यह कहा है कि इस बात की सावधानी रखनी चाहिए कि जीवन खाने के लिए ही न बन जाए और खाने में आसक्ति न रखी जाय ।
जब आहार ग्रहण करने की स्थिति साधक के समक्ष आती है तो वह खुराक में संविभाग करता है । इसे अतिथि संविभाग या आहार संविभाग कहते हैं।
पौषध व्रत का काल समाप्त होने के पश्चात् जब साधक आहार ग्रहण करने को उद्यत होता है तब आराधक की यह अभिलाषा होती है कि महात्माओं को कुछ दान करके खाऊं तो मेरा खाना भी श्रेयस्कर हो जाय । अवसर के अनुसार इस अभिलाषा को पूर्ण करना अतिथि संविभाग है ।