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आध्यात्मिक आलोक
469 मनोवृत्ति जब तक वीतरागतामयी नहीं हो जाती तब तक इस जीवन में भी निराकुलता और शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती । जितने-जितने अंशों में वीतरागता का विकास होता जाता है, उतने ही उतने अंशों में शान्ति सुलभ हो जाती है । अतएव अगर हम वीतराग परिणति को अपना सकें तो श्रेयस्कर ही है। न अपना सकें तो भी कम से कम वीतरागता की ओर बढ़ने वालों को देखकर प्रमोद का अनुभव करें। वीतराग के प्रति प्रमोद का अनुभव करना भी वीतरागता के प्रति बढ़ने का पहला कदम है।
भगवान के चरणों में अन्तिम समय तक रह कर और उनसे वीतरागभाव की प्रेरणा प्राप्त करके अनेक राजाओं ने अपने जीवन को कृतार्थ समझा।
साधना की प्राथमिक भूमिकाओं में देव और गुरु के प्रति अनन्य अनुराग उपयोगी होता है । सुदेव और सुगुरु के प्रति दृढ़ अनुराग होने से साधक कदेव और कुगुरु की उपासना से बच कर मिथ्यात्व से भी बचता है । किन्तु सिद्धान्त बतलाता है कि यह स्थिति भी उच्च भूमिका पर चढ़ने में एक प्रकार की रुकावट है । मैं आराधक हूँ और मुझसे भिन्न कोई आराध्य है, इस प्रकार का विकल्प जब तक बना रहता है, तब तक आराधना पूर्ण नहीं होती । चित्त में आराध्य, आराधक और आराधना का कोई विकल्प न रह जाना-तीनों का एक रूप हो जाना अर्थात् भेद प्रतीति का विलीन हो जाना ही सच्ची आराधना है | तात्पर्य यह है कि जब आत्मा अपने ही स्वरूप में रमण करती है और बाह्य जगत् के साथ उसका कोई लगाव नहीं रह जाता है, वही ध्याता, वही ध्येय और वही ध्यान के रूप में परिणत हो जाता है-निर्विकल्प समाधि की दशा प्राप्त कर लेता है तभी उसकी अनन्त शक्तियाँ जागृत होती हैं।
प्राथमिक स्थिति में भी साधक को गुरु के शरीर के सहारे न रह कर गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान के सहारे रहना चाहिए । गौतम स्वामी ने प्रभु की सेवा में ३० वर्ष व्यतीत कर दिए । वे कभी उनसे पृथक् नहीं रहे । उन्होंने सच्चे अन्तेवासी (निकट ही निवास करने वाले ) का धर्म निभाया । परन्तु उन्हें पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई। उनके हृदय में अपने आराध्य भगवान् के प्रति जो प्रशस्त राग विद्यमान था, उसने आवरणों का सम्पूर्ण क्षय नहीं होने दिया ।
____ महावीर स्वामी ने गौतम से कहा-"मेरे प्रति तुम्हारा जो अनुराग है, उसे बाहर निकाल दो तो केवलज्ञान की प्राप्ति होगी ।" जब तक साधक अपने से भिन्न किसी दूसरे पर अवलम्बित है तब तक बहिर्दृष्टि बना रहता है-वह पूर्णरूपेण अन्तर्मुखी नहीं हो पाता । अन्तर्मुखता के बिना आत्मनिष्ठता नहीं आती और आत्मनिष्ठा के