________________
438
आध्यात्मिक आलोक महर्षियों ने शान्ति और कल्याण का जो उपदेश दिया है वह पात्र के पास पहुँचकर सफल बनता है । उपजाऊ जमीन पाने से बीज की कीमत होती है । जिस प्रकार सड़क जैसे एवं पथरीले स्थल में डाला हुआ बीज फलवान नहीं होता; इसी प्रकार अपात्र को दिया गया उपदेश भी निष्फल जाता है। .
आनन्द महावीर स्वामी के चरणों में योग्य पात्र बनकर आया । उसके हृदय-रूपी उर्वरा प्रदेश में भगवान ने जो उपदेश का बीज बोया वह अंकुरित हुआ, फलित हुआ । इससे उसके जीवन को अपूर्व प्रकाश मिला । उसने अद्भुत शान्ति का अनुभव किया । वह दूसरों के समक्ष भी मार्ग प्रस्तुत करने लगा । वह स्वयं ज्ञान को ग्रहण करके दूसरों के लिए दीपक बना ।
मगर व्रती जीवन की पवित्रता इस बात में है कि जिस भावना एवं संकल्प शक्ति से व्रत को स्वीकार किया गया है, उसे सदैव जागृत रखा जाय, उसमें कमजोरी ने आने दी जाय । अक्सर ऐसा होता है कि किसी प्रसंग पर मनुष्य की भावना ऊपर उठती है और वह मंगलमय मार्ग पर प्रयाण करने को उद्यत हो जाता है किन्तु थोड़े समय के पश्चात् उसका जोश ठंडा पड़ जाता है और स्वीकृत व्रत में आस्था मन्द हो जाने पर वह गली-कूचा खोजने लगता है । यह गली-कूचा खोजना या व्रत की मर्यादा को भंग करने का मार्ग निकालना ही अतिचार कहलाता है। अतिचार के सेवन से व्रत का वास्तविक उद्देश्य नष्ट हो जाता है। उससे आत्मा को प्राप्त होने वाली शान्ति प्राप्त नहीं होती । अतएव गृहस्थ के सभी व्रतों के साथ पांच-पांच अतिचारों का वर्णन किया गया है, जिससे व्रती पुरुष उनसे भलीभाँति परिचित रहे और बचता भी रहे।
इसी दृष्टिकोण से यहां व्रतों के विवेचन के साथ उनके अतिचारों का भी निरूपण किया जा रहा है । अनर्थदण्ड के अतिचारों में कन्दर्पकथा, कौत्कुच्य और . मौखर्य के विषय में कहा जा चुका है। उनकी संक्षेप में व्याख्या भी की जा चुकी . है। यहां चौथे अतिचार पर विचार करना है।
(४) संयुक्ताधिकरणता :-उपकरण और अधिकरण में शाब्दिक दृष्टि से बहुत अन्तर न होते हुए भी दोनों के अर्थ में महान् अन्तर है । धर्म का साधन उपकरण कहलाता है, जब कि अधिकरण वह है जो पाप का साधन हो । जिसके द्वारा आत्मा दुर्गति का अधिकारी बने वह अधिकरण 'अधिक्रियते आत्मा दुर्गतौ येन तदधिकरणम् ऐसी अधिकरण शब्द की व्युत्पत्ति है।
अधिकरण दो प्रकार के हैं-द्रव्य-अधिकरण और भाव-अधिकरण । तलवार, बन्दूक आदि पौदगलिक शस्त्रादि जो हिंसा के साधन हैं, द्रव्याधिकरण कहलाते हैं और क्रोध, मान, माया, लोभ आदि अप्रशस्त भाव भावाधिकरण ।