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आध्यात्मिक आलोक . द्रव्य है, देह आदि जड़ पर्याय हैं जिनका क्षण-क्षण में रूपान्तर होता रहता है। इस प्रकार इनके साथ नं आत्मा का कोई सादृश्य है और न एकत्व है।
__ इस प्रकार का भेद-विज्ञान सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होने पर होता है । भेद-विज्ञान की उत्पत्ति के साथ ही मोक्ष मार्ग का प्रारंभ होता है । भेद विज्ञानी प्राणी हेय और उपादेय के वास्तविक मर्म को पहचान लेता है और चाहे वह अपने ज्ञान के अनुसार आचरण न कर सके, फिर भी उसके चित्त में से राग-द्वेष की सघन ग्रन्थि हट जाती है और एक प्रकार का उदासीन भाव उत्पन्न हो जाता है, जिसके कारण वह अत्यासक्त नहीं बनता । वह जल में कमल की तरह अलिप्त रहता हुआ संसार व्यवहार चलाता है । तत्पश्चात् कषाय की अधिक मन्दता होने पर अणुव्रत आदि प्रारम्भ होते हैं। इससे स्पष्ट है कि व्रतों की आदि सम्यक्त्व है और सम्यक्त्व को सामायिक में परिगणित किया गया है, अतएव सम्यक्त्व और श्रुत सामायिक को आदि में मानना उचित ही है।
एक चूल्हे चौके का काम करने वाली महिला और दूकान पर बैठा व्यवसायी यदि सम्यक्त्व सामायिक से सम्पन्न होगा तो उसे सदैव यह ध्यान रहेगा कि मेरे निमित्त से, मेरी असावधानी से किसी भी जीव-जन्तु को पीड़ा न पहुँचे । चूल्हे और व्यवसाय का काम चल रहा है और वह महिला तथा पुरुष सामायिक भी कर रहे हैं।. बाह्य दृष्टि से यह सामायिक नहीं है पर यदि वास्तव में सामायिक न हो तो वह हिंसा को कैसे बचाएगा? अतएव कहा गया है कि वहां सामायिक की आदि है।
__ और अन्त में, जहां त्याग की पूर्णता है वहां तो सामायिक है ही । अनर्थ दण्ड विरमण व्रत के पश्चात् सामायिक को स्थान देकर महावीर स्वामी ने एक महत्त्वपूर्ण बात यह सूचित की है कि भोगोपभोग की वृत्ति पर अंकुश रखना चाहिए। ऐसा करने से साधना के मार्ग में शान्त और स्थिर दशा सुलभ होगी । शान्ति और स्थिरता के बिना साधना नहीं हो सकती । जो स्वयं अशान्त रहेगा वह दूसरों को कैसे शान्ति प्रदान कर सकता है ?
___ महापुरुष साधना के मार्ग में सफल हुए, स्वयं शान्ति स्वरुप बन गए और दूसरों के. पथप्रदर्शक बन गए । महावीर स्वामी ने आनन्द का पथ प्रदर्शन किया । भद्रबाहु ने स्थूलभद्र को योग्य पात्र जान कर उनका पथप्रदर्शन किया । उन्हें श्रुत का अभ्यास कराया । श्रुताभ्यास के लिए पांच अवगुणों का परित्याग करना अत्यावश्यकहै- .
थंभा कोहा पमाएणं रोगेणालस्सएण य । . . . . . .