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आध्यात्मिक आलोक
445 . ज्ञानार्थी पुरुष को (9) अहंकार (२) क्रोध ) प्रमाद (8) रोग और (६) आलस्य, इन पांच बातों से बचना ही चाहिए । इनसे बचने पर ही ज्ञान का अभ्यास किया जा सकता है ।
जैसे ऊँची जमीन पर पानी नहीं चढ़ता उसी प्रकार अहंकारी को विद्या की प्राप्ति नहीं होती । विद्या प्राप्ति के लिए विनम्रता चाहिए, विनयशीलता होनी चाहिए। इसी प्रकार जो क्रोधशील होता है, चिड़चिड़ा होता है, जिसके हृदय में क्रोध की ज्वालाएँ रहती हैं, वह भी श्रुत का अभ्यास करने में असमर्थ रहता है । प्रमादी । व्यक्ति चलते चलते बहुत समय तक बातें करता रहता है, सोया तो सोता रहेगा, खाने बैठा तो खाया करेगा । श्रृंगार-सजावट करने में घण्टों बिता देगा | वह कुछ समझेगा, कुछ करेगा । फिजूल की बातों में उपयोगी समय नष्ट करेगा । दूसरों की निन्दा करेगा, विकथा करेगा और अपनी ओर जरा भी लक्ष्य नहीं देगा।
आलसी आदमी भी विद्या का अभ्यास नहीं कर सकता । विद्याभ्यास के लिए स्फूर्ति आवश्यक है। नियमित कार्य करने की वृत्ति अपेक्षित है। 'आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपुः' अर्थात् आलस्य शरीर के भीतर पैठा हुआ महान् शत्रु है। बाहर के दुश्मन से बचना सरल होता है किन्तु अपने ही अन्दर छिपे बैरी से पार पाना कठिन होता है। आलसी मनुष्य उपस्थित कार्य को आगे सरकाने की चेष्टां करता है, कर्तव्य को टालने और उससे बचने का प्रयत्न करता है और यही सोच कर समय नष्ट करता है कि आज नहीं, कल कर लेगे । कल आने पर परसों का बहाना करता है और आप ही अपने को धोखा देता रहता है ।
. इस प्रकार ज्ञानोपार्जन के बाधक कारणों को जान कर उनसे बचना चाहिए। जो उक्त पांचों दोषों से बचे रहते हैं वे ही श्रुत की आराधना करने में समर्थ होते हैं।
स्थूलभद्र के साथ कई सन्त श्रुताभ्यास के हेतु गए थे । किन्तु स्थूलभद्र के सिवाय शेष सभी वापिस लौट आए । उनमें उक्त पांच बातों में से कोई न कोई बात रही होगी । जो व्यक्ति दृढ़ संकल्प के साथ, हिम्मतपूर्वक किसी शुभ कार्य में जुट जाता है, उसे अवश्य सफलता प्राप्त होती है चाहे वह कार्य कितना ही दुस्साध्य हों।
. मनुष्य जीवन अल्पकालिक है । मृत्यु ज्ञानी और अज्ञानी में, गृहस्थ और गृहत्यागी में एवं राजा और रंक में कोई भेद नहीं करती । उसके लिए सभी समान
है । जिसने जन्म लिया, उसका मरण अवश्यंभावी है । आचार्य संभूतिविजय भी । अन्ततः स्वर्गवासी बने । उनके देहोत्सर्ग के बाद भद्रबाहु लौट कर आए और उन्होंने