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आध्यात्मिक आलोक सामायिक तन और मन की साधना है । इस व्रत की आराधना में तन की दृष्टि से इन्द्रियों पर नियन्त्रण स्थापित किया जाता है और मन की दृष्टि से उसके उद्वेग एवं चांचल्य का निरोध किया जाता है । मन में नाना प्रकार के जो संकल्प-विकल्प होते रहते हैं, राग की, द्वेष की, मोह की या इसी प्रकार की जो परिस्थिति उत्पन्न होती रहती है, उसे रोक देना सामायिक व्रत का लक्ष्य है । समभाव की जागृति हो जाना शान्ति प्राप्ति का मूल मन्त्र है । इस संसार में जितने भी दुःख, द्वन्द, क्लेश और कष्ट हैं, वे सभी चित्त के विषम भाव से उत्पन्न होते हैं। उन सबके विनाश का एकमात्र उपाय समभाव है । समभाव वह अमोघ कवच है जो प्राणी को समस्त आघातों से सुरक्षित कर देता है । जो भाग्यवान् समभाव के सुरम्य सरोवर में सदा अवगाहन करता रहता है, उसे संसार का ताप पीड़ा नहीं पहुंचा सकता | समभाव वह लोकोत्तर रसायन है जिसके सेवन से समस्त आन्तरिक व्याधियां-वैभाविक परिणतियां नष्ट हो जाती हैं । आत्मा रूपी निर्मल गगन में जब समभाव का सूर्य अपनी समस्त प्रखरता के साथ उदित होता है तो राग, द्वेष, मोह आदि उलूक विलीन हो जाते हैं । आत्मा में अपूर्व ज्योति प्रकट हो जाती है और उसके सामने आलोक ही आलोक प्रसारित हो उठता है ।
किन्तु अनादि काल से विभाव में रमण करने वाला और विषम भावों के विष से प्रभावित कोई भी जीव सहसा समभाव की उच्चतर भूमिका पर नहीं पहुँच सकता | समभाव को प्राप्त करने और बढ़ाने के लिए अभ्यास की आवश्यकता होती है । जैसे अखाड़े में व्यायाम करने वाला व्यक्ति अपने शारीरिक बल को बढ़ाता है, वैसे ही सामायिक द्वारा साधक अपनी मानसिक दुर्बलताओं को दूर करके समभाव और संयम को प्राप्त करता है । अतएव प्रकारान्तर से सामायिक के साधनों को मन का व्यायाम कहा जा सकता है। .
सामायिक व्रत की आराधना करने में अतिचार लग सकते हैं, वे इस प्रकार
(9) मणदुप्पणिहाणे-सामायिक का पहला अतिचार मनः दुष्प्रणिधान है जिसका तात्पर्य है मन का अशुभ व्यापार | सामायिक के समय में साधक को ऐसे विचार नहीं करने चाहिए जो सदोष या पापयुक्त हों । सामायिक में मन आत्मोन्मुख होकर एकाग्र बन जाना चाहिए । एकाग्रता को खण्डित करने वाले विचारों को मन में स्थान देना या आत्म चिंतन से विमुख करने वाले विचारों का मन में प्रवेश होने देना साधक की पहली दुर्बलता है।