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आध्यात्मिक आलोक
455 (5) सामाइअस्स अणवट्ठियस्स करणया व्यवस्थित रूप से अर्थात् आगमोक्त पद्धति से सामायिक व्रत का अनुष्ठान न करने से इस दोष का भागी होना पड़ता • है। सामायिक अंगीकार करके प्रमाद में समय व्यतीत कर देना, नियम के निर्वाह के लिए जल्दी-जल्दी सामायिक करके समाप्त कर देना, चित्त में विषम भाव को स्थान देना आदि अनौचित्य इस व्रत के दोष के अन्तर्गत हैं ।
सामायिक साधना की अन्तिम दशा समाधि है, जैसे योगशास्त्र के अनुसार योग की अन्तिम स्थिति समाधि है । समाधि की स्थिति में पहुँच जाने पर साधक शोक और चिन्ता के कारण उपस्थित होने पर भी आनन्द में मग्न रहता है । शोक उसके अन्तःकरण को म्लान नहीं कर सकता और चिन्ता उसके चित्त में चंचलता उत्पन्न नहीं कर सकती । वह आत्मानन्द में मस्त हो जाता है । इसी अद्भुत आनन्द की प्राप्ति के लिए चक्रवर्तियों ने और बड़े-बड़े सम्राटों ने भी अपने साम्राज्य को तिनके की तरह त्याग कर सामायिक व्रत को अंगीकार किया था । वस्तुतः सामायिक में निराला ही आनन्द है । उस आनन्द के सामने विषयजन्य सुख किसी गिनती में नहीं है । मगर शर्त यही है कि सामायिक सच्ची सामायिक हो, भाव सामायिक हो और उसके अनुष्ठान में स्व-पर कंचना को स्थान न हो।
आत्मा में जब तक शुद्ध दृष्टि नहीं उत्पन्न होती, शुद्ध आत्मकल्याण की कामना नहीं जागती और मन लौकिक एषणाओं से ऊपर नहीं उठ जाता, तब तक शुद्ध सामायिक की प्राप्ति नहीं होती । अतएव लौकिक कामना से प्रेरित होकर सामायिक का अनुष्ठान न किया जाय वरन् कर्मबन्ध से बचने के लिए-संवर की प्राप्ति के लिए सामायिक का आराधन करना चाहिए | कामराग और लोभ के झोंकों से साधना का दीप मन्द हो जाता है | और कभी-कभी बुझ भी जाता है । अतएव आगमोक्त विधि से उत्कृष्ट प्रेम के साथ सामायिक करना चाहिये जो ऐसा करेगा उसका वर्तमान जीवन अलौकिक आनन्द से परिपूर्ण हो जाएगा और परलोक परम मंगलमय बन जाएगा।