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आध्यात्मिक आलोक
443 दूसरे देश का शोषण करने को तत्पर होता है । चीन इसी प्रकार के अतिरेक के कारण भारत पर आक्रमण कर रहा है । युग-युगान्तर से भोगोपभोग की बढ़ी चढ़ी आवश्यकता ने संसार को अशान्त बना रखा है। संसार को सुधारना कठिन है, परन्तु साधक स्वयं अपने को सुधार कर तथा अपने ऊपर प्रयोग करके दूसरों को प्रेरणा दे सकता है। जो स्वयं जिस मार्ग पर न चल रहा हो, दूसरों को उस मार्ग पर चलने का उपदेश दे तो उसका प्रभाव नहीं पड़ सकता | जो स्वयं हिंसा के पथ का पथिक हो वह यदि अहिंसा पर वक्तृता दे तो कौन उसकी बात मानेगा ? लोग उलटा उपहास करेंगे । अतएव अगर दूसरों को सन्मार्ग पर लाना है, यदि मानसिक सन्तुलन की स्थिति जीवन में उत्पन्न करनी है, मन की विकृतियों को हटाना है, हृदय को शान्त, तनावमुक्त और चिन्ताहीन बनाना है तो साधक को सर्वप्रथम अपने पर नियन्त्रण स्थापित करना चाहिए । ऐसा करने पर अपूर्व शान्ति का लाभ होगा ।
आत्मसंयम करने की चीज है, कहने की नहीं। मिश्री बेचने वाला 'मीठी है कहने के बदले चखने को देकर शीघ्र अनुभव करा सकता है। धर्म के विषय में भी यही स्थिति है। पालन करने से ही उसका वास्तविक लाभ प्राप्त होता है ।
आनन्द ने श्रावकधर्म के पालन का दृढ़ संकल्प किया । उसने इस संकल्प के साथ व्रतों को अंगीकार किया कि मैं इन व्रतों में अतिचार नहीं लगने दूंगा । जो इन व्रतों के दूषणों से बचा रहता है, उसके लिए सामायिक आदि व्रत सरल हो जाते हैं । अणुव्रतों और गुणवतों की साधना को जो सफलतापूर्वक सम्पन्न कर लेते हैं वे सामायिक की साधना के पात्र बन जाते हैं । जैसे सुमरनी ( माला) की आदि और अन्त सुमेरु है, उसी प्रकार सामायिक व्रतों की आदि और अन्त दोनों है। जब तक उसका ठीक रूप समझ में नहीं आएगा तब तक आदि और अन्त कैसे समझ में आ सकता है ?
शास्त्र का कथन है कि जब तक हृदय में शल्य विद्यमान रहता है तब तक व्रती जीवन प्रारम्भ नहीं होता । माया, मिथ्यात्व और निदान, ये तीन भयंकर शल्य हैं जो आत्मा के उत्थान में रुकावट डालते हैं । इनके अतिरिक्त जब कषायभाव की मन्दता होती है, अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानावरण नामक कषाय का उपशम या क्षय होता है तभी जीव व्रती बनता है । इस प्रकार सम्यग्दृष्टि के आने पर जीव
पर-पदार्थ को बन्ध का कारण समझता है और शुद्ध चेतनास्वरूप आत्मा को पहचानता • है । उस समय वह समझने लगता है कि आत्मा सभी पौदगलिक भावों से न्यारा है, निराला है और उनके साथ आत्मा का तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है, शरीर, इन्द्रियां और मन पौद्गलिक होने से आत्मा से पृथक है । आत्मा अरूपी तत्त्व है, देहादि रूपी है। आत्मा अनन्त चेतना का पुंज है, देहादि जड़ है | आत्मा अजर, अमर, अविनाशी