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आध्यात्मिक आलोक आज इस देश में अनाज पर्याप्त नहीं उत्पन्न होता और विदेशों से मंगाकर जनता की आवश्यकता की पूर्ति की जाती है । अतएव ऐसे भी अवसर आते हैं जब अनाज की कमी महसूस होने लगती है । उस समय अनाज के व्यापारी अगर अपने गोदामों को बन्द कर दें, प्रजा के अन्नाभाव जनित संकट से लाभ उठाने का प्रयत्न करें
और लोगों को भूखा मरते देख कर भी न पसीजें तो यह महान् अपराध है, क्रूरता है। यह व्यापारिक नीति नहीं । पदार्थ की रमणीकता को देखकर अनावश्यक रूप से उसका संग्रह कर लेना और भोगोपभोग की सीमा को बढ़ाना आरम्भ की वृद्धि करना है, चाहे वह खाद्य पदार्थ हो, वस्त्र हो या औषध आदि हो ।
. सूती वस्त्रों से क्या काम नहीं चल सकता ? करोड़ों मनुष्य ऐसे हैं जिन्हें रेशमी और ऊनी वस्त्र प्राप्त नहीं होते ? क्या वे जीवित नहीं रहते ? शीत और गर्मी से उनके शरीर की रक्षा नहीं होती ? उनकी लज्जा की रक्षा नहीं होती ? बीमारी होने पर साधारण अहिंसक औषधियों से उपचार होता रहा है। जब एलोपैथिक दवाओं का आविष्कार नहीं हुआ था तब एक से एक बढ़ कर प्रभावोत्पादक औषधे इस देश में प्रचलित थीं। उनसे चिकित्सा होती थी। उस समय के लोग आज की अपेक्षा अधिक दीर्घजीवी होते थे । किन्तु आज घोर हिंसाकारी औषधों का प्रचार बढ़ता जा रहा है, साथ ही नये-नये रोग बढ़ते जा रहे हैं और अल्पायुष्कता भी बढ़ती जा रही है। फिर भी लोग अन्धाधुन्ध विलायती औषधों के प्रयोग से बाज नहीं आते।
बड़ी-बड़ी वस्त्र मिलों और कारखानों की स्थापना से प्रजाजनों की आजीविका छिन गई है । हजारों हाथ जो काम करते थे, उसे एक मशीन कर डालती है । बेरोजगारी की समस्या उलझती जा रही है। फिर भी दिन-ब-दिन नवीन कारखाने खुलते जाते हैं। उनके कारण महारम्भ और हिंसा की वृद्धि हो रही है।
जिन देशों में अहिंसा की परम्परा नहीं है, जिन्हें विरासत में अहिंसा के सुसंस्कार नहीं मिले हैं वहां यदि ऐसी वस्तुओं को प्रोत्साहन मिले तो उतने खेद और
आश्चर्य की बात नहीं किन्तु भारत जैसा देश, जो सदैव अहिंसा का प्रेमी रहा है, हिंसाकारी वस्तुओं को अपनाए, तो कौन संसार को अहिंसा का पथ प्रदर्शित करेगा ?
अहिंसा का आदर्श उपस्थित करने की योग्यता सिवाय भारतवर्ष के अन्य किसी भी देश में नहीं है। इस देश के महर्षियों ने हजारों-लाखों वर्ष पहले से अहिंसा विषयक चिन्तन आरम्भ किया और उसे गम्भीर रूप दिया । वह चिन्तन आज भी उसी प्रकार उपयोगी है और कभी पुराना पड़ने वाला नहीं है किन्तु आज इस देश के निवासी पश्चिम का अन्धानुकरण करने में ही गौरव समझते हैं। उचित यह है कि हम अपनी संस्कृति की छाप पश्चिम पर अंकित करें और उसे ऋषियों के बताये हुए सन्मार्ग पर लाएं।