________________
आध्यात्मिक आलोक
423 भद्रबाहु स्वामी के उत्तर को सुनकर सांघ ने जो निर्णय किया, उसका दिग्दर्शन आगे कराया जाएगा।
जो श्रुतज्ञान के भाव-दीपक को अपने अन्तर में प्रज्वलित करेंगे उन्हीं का दीपमालिका पर्व मनाना सार्थक होगा और उन्हीं का शाश्वत कल्याण होगा ।
इस विराट और विशाल सृष्टि में अनन्त-अनन्त पदार्थ विद्यमान हैं। अगर उनकी गणना का उपक्रम किया जाय तो अनन्त जन्म में भी गणना नहीं हो सकती। उन सबको जान लेना भी छमस्थ के सामर्थ्य से बाहर है । ऐसी स्थिति में वर्गीकरण की पद्धति को अपनाना ही आवश्यक है । प्रतिपादक अपनी विवक्षा के अनुसार विश्व के समस्त पदार्थों को कतिपय राशियों में विभक्त कर लेता है और फिर उन पर प्रकाश डालता है । उदाहरणार्थ जैन परम्परा में दार्शनिक दृष्टि से संसार के समस्त पदार्थों को षट् विभागों में विभक्त किया गया है जिन्हें षट् द्रव्य की संज्ञा दी गई है। इस विभाजन से समग्र विश्व का रूप हमारे समक्ष प्रस्तुत हो जाता है अर्थात् हमें प्रतीत हो जाता है कि इस सृष्टि के मूल उपादान तत्व क्या क्या और कौन-कौन से हैं ?
किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से जब वर्गीकरण किया जाता है तो मूल तत्त्वों की संख्या नौ निर्धारित की जाती है। अध्यात्म के क्षेत्र में इस प्रकार का वर्गीकरण ही अधिक उपयुक्त है । मगर इस सम्बन्ध में विस्तार से विचार करने के लिए यह अवसर अनुकूल नहीं है। क्योंकि इस समय चारित्र का निरूपण चल रहा है, अतएव उसी के सम्बन्ध में प्रकाश डालना है | आचरण की दृष्टि से जगत् के पदार्थों को तीन भागों में बांटा गया है:
(७) हेय-त्याग करने योग्य, (२) उपादेय-ग्रहण करने योग्य, और (B) ज्ञेय-केवल जानने योग्य |
संसार की सभी वस्तुएं इन तीन वर्गों में समाविष्ट हो जाती हैं । इसे यों भी कहा जा सकता है कि ज्ञेय पदार्थ हेय और उपादेय, इन दो भागों में बाटे जा सकते हैं।
अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि सद्गुण उपादेय अर्थात् ग्रहण करने योग्य हैं। अगर ये सद्गुण सिर्फ ज्ञेय होकर ही रह जाएं तो इनका कोई उपयोग नहीं है । एक मनुष्य अहिंसा के मर्म को जानता है, उस पर घंटों प्रवचन कर सकता है, दूसरे के दिमाग में बिठा सकता है परन्तु उसे अपने जीवन में व्यवहत नहीं करता तो इससे उसे क्या लाभ होने वाला है ? कुछ भी नहीं ।