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आध्यात्मिक आलोक
435 मुख की लक्ष्मी विवेकपूर्ण बोलना है, सुपात्र एवं सुशीला नारी गृह की लक्ष्मी है, ज्ञान आत्मा की लक्ष्मी है । दान धन की लक्ष्मी है ।
वास्तव में ज्ञान को आन्तरिक लक्ष्मी का जो स्वरूप प्रदान किया गया है, उसमें तथ्य है । कहना चाहिए कि वह सच्ची लक्ष्मी है । रुपया, पैसा, नोट, धन रूप बाह्य लक्ष्मी कभी अलक्ष्मी का रूप धारण कर लेती है । वह घोर अमंगल का कारण बन जाती है । आये दिन समाचार-पत्रों में ऐसे समाचार छपते रहते हैं कि रुपया-पैसा के लिए अमुक की हत्या कर दी गई । यों भी बास्य लक्ष्मी सदा चिन्ता
और आकुलता ही उत्पन्न करती है । इसके विपरीत ज्ञानरूपी लक्ष्मी से कभी अमंगल होने की संभावना नहीं रहती । वही इस लोक में तथा परलोक में एकान्त मंगल ही उत्पन्न करती है।
आचार्य भद्रबाहु ने ज्ञान की ज्योति को जागृत रखने के लिए श्रुत की सात वाचनाएं देने का वचन दिया । स्थूलभद्र के नेतृत्व में साधुगण सच्ची लक्ष्मी पूजा के हेतु नेपाल की तराई में भद्रबाहु के पास पहुंचे।
भद्रबाहु ने, जैसा कि कहा जा चुका है, सात वाचनाएं देने के लिए समय निकाला, परन्तु अभ्यास हेतु गये मुनियों को इससे सन्तोष नहीं हुआ । उन्हें ऐसा लगा कि हमारा बहुत समय व्यर्थ जा रहा है। कुछ दिन यों ही असन्तोष में व्यतीत हो गए । तत्पश्चात् उन विद्यार्थी मुनियों ने वापिस अपने गुरु की सेवा में जाने का निश्चय किया । भद्रबाहु स्वामी के सामने अपनी इच्छा प्रकट भी कर दी । स्वामीजी ने जाने की अनुमति दे दी । वे वापिस चले गए । किन्तु स्थूलभद्र उनमें एक विशिष्ट जिज्ञासु और आराधक थे, वे भद्रबाहु स्वामी की ही सेवा में रहे ।
____ अभ्यास करने वालों में प्रायः अधीरता देखी जाती है । वे चाहते हैं कि थोड़े ही दिनों में जैसे तैसे ग्रन्थों को पढ़ना समाप्त कर दें और विद्वान बन जाएं । मगर उनकी अधीरता हानिजनक होती है । ज्ञान प्राप्ति के लिए समुचित समय और श्रम देना आवश्यक है । गुरु से जो सीखा जाता है, उसे सुनते जाना ही पर्याप्त नहीं है। किसी शास्त्र को आदि से अन्त तक एकबार पढ़ लेना अलग बात है
और उसे पचा लेना दूसरी बात है। शिक्षार्थी के लिए आवश्यक है कि वह शिक्षक से जो सीखे उसे हृदय में बद्धमूल करले और इस प्रकार आत्मसात् करे कि उसकी धारणा बनी रहे । उस पर बार-बार विचार करे, चिन्तन करे । शब्दार्थ एवं भावार्थ को अच्छी तरह याद करे । ऐसी तैयारी करे कि समय आने पर दूसरों को सिखा भी सके। चिन्तन-मनन के साथ पढ़े गए अल्पसंख्यक ग्रन्थ भी बहुसंख्यक ग्रंथों के पढ़ने का प्रयोजन पूरा कर देते हैं। इसके विपरीत, शिक्षक बोलता गया शिष्य सुनता गया