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आध्यात्मिक आलोक
431. सभी को समान रूप से भोगना पड़ता है । इसी प्रकार कुवाणी के प्रयोग का फल सभी के लिए घातक सिद्ध होता है । कुवचन बोलना पाप है और पाप आग की तरह जलाने वाला है । कदाचित् नासमझ बालक आग से हाथ जला ले तो उतना बुरा नहीं समझा जाएगा परन्तु समझदार ऐसा करेगा तो अधिक उपहास तथा आलोचना का पात्र बनेगा।
वाणी आन्तरिक चेतना की अभिव्यक्ति का सर्वोत्तमा साधन ही नहीं, अनेकानेक व्यवहारों का माध्यम भी है । सफल वक्ता हजारों लाखों विरोधियों को अपनी वाणी के जादू से प्रभावित करके अनुकूल बना लेता है ।।
एक तरुण व्यक्ति किसी गांव में एक किसान के घर गया । किसान के साथ उसका लेन-देन का व्यवहार था । वह खाने के लिए थोड़ें, से धान के दाने ले गया । किसी गांव में घूघरी बना कर खा लेंगे, यह सोच कर वह चल दिया । रास्ते में उसे खेड़ा मिला । वहां एक बुढ़िया ने उसे रामाराम किया । उस तरुण ने कहा-"भूख बहुत लगी है, रोटी बनाने की सुविधा नहीं है । धान के दाने मेरे पास हैं, क्या. घुघरी बना. दोगी ?"
बुढ़िया घूघरी बना देने को राजी हो गई ।' उसने एक हांडी. में दाने डाल दिये. और आगत. तरुण से कहा-"कुछ देर बैठे रहना या निपटना हो तो निपट आओ | मैं अभी आती हूँ।"
तरुण ने एक बढ़िया भैंस की ओर संकेत करके प्रश्न किया कि यह भैंस किस की है ?
उत्तर मिला-"अपनी ही है।" "बाहर क्यों नहीं निकलती ?" "नजर न लग जाय, इसलिये ।"
इसके बाद उस असंयत वाणी बोलने वाले तरुण ने बिना सोचे-समझे प्रश्न किया - "यदि भैंस मर जाय तो इतनी छोटी संकीर्ण वाड़ी में से कैसे बाहर निकालोगी?"
बुढ़िया को रोष आया, मगर उस तरुण को घर आया तथा नासमझ समझ कर क्षमा कर दिया।
तरूण घर में ही बैठा रहा । बुढ़िया तब तक अपनी बहू के साथ पानी लेकर आई । दूसरी कौन है, यह पूछने पर बुढ़िया ने बतलाया-'यह बहू है ।' तरुण