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आध्यात्मिक आलोक
__421 बुद्धिमान को इशारा ही काफी होता है । महान ज्ञानी भद्रबाहु स्वामी ने संघ के संकेत को समझ लिया और यह भी जान लिया कि संघ मेरे पहले वाले उत्तर से सन्तुष्ट नहीं है । तब उन्हें विचार आया-इस समय ऐसा करना ही समुचित होगा कि संघ का अविनय भी न हो और मेरा भी आरब्ध कार्य सम्पन्न हो जाय । विश्राम कम करके यदि रात्रि का समय ध्यान में लगाया जाएगा तो शास्त्रवाचना और ध्यानयोग दोनों का सम्यक् प्रकार से निर्वाह हो जाएगा । इस प्रकार विचार करके भद्रबाहु ने मुनियों को उत्तर दिया-"संघ बड़ा है । भद्रबाहु संघ के आदेश को शिरोधार्य करता है । वह संघ की प्रत्येक आज्ञा का पालन करने को उद्यत है।"
बन्धुओ ! बात के कहने कहने में अन्तर होता है । एक ही बात एक ढंग से कहने पर श्रोता के चित्त पर उसका जो प्रभाव पड़ता है दूसरे ढंग से कहने पर उसी का प्रभाव दुसरा होता है। शिष्ट जन संयत भाषा का प्रयोग करते हैं। (9) मैं नहीं आ सकता और (२) क्षमा कीजिए, मैं आवश्यक कार्य से आने में असमर्थ हूँ। इन दो वाक्यों का प्रतिपाद्य विषय एक ही है, परन्तु शब्दावली में अन्तर है । शब्दावली के इस अन्तर में अशिष्टता और शिष्टता भी छिपी हुई है । संयत भाषा के प्रयोग से कार्य भी सिद्ध हो जाता है और विनम्रता एवं शिष्टता की भी रक्षा हो जाती है । गुरु अपने शिष्य को कह सकता है कि तुम्हें बोलने का भान नहीं है, मगर शिष्य यदि गुरु से कहे कि आपको विवेक नहीं है, तो यह अविनय
और अशिष्टता होगी, वृद्ध पितामह से कहा जाय कि बाबा साहब, हम आपकी सेवा में हैं अब आपको करने की आवश्यकता नहीं, हम सब कर लेंगे, तो इससे न केवल वृद्ध को अपितु अन्य सुनने वालों को भी अच्छा लगेगा, किसी के दिमाग में उत्तेजना नहीं होगी और काम भी चल जाएगा । तात्पर्य यह है कि विवेकशील व्यक्ति को शिष्टतापूर्ण नम्रताद्योतक और साथ ही अपनी पदमर्यादा को ध्यान में रखते हुए भाषा का समुचित प्रयोग करना चाहिए ।
आचार्य भद्रबाहु ने लोकोपचार विनय का आश्रय लिया । विनय सात प्रकार का है-८) ज्ञानविनय (२) दर्शनविनय () चारित्रविनय (8) मनोविनय (1) क्वन विनय () कायविनय और (७) लोकोपचार विनय । प्रारम्भ के तीन विनय साध्य हैं और उनके बाद के मनोविनय, वचन विनय और कायविनय उनके साधन हैं । सातवां उपचार विनय है । उन्होंने उपचार विनय की दृष्टि से सुखद शब्दावली का प्रयोग किया । वे बोले- पेश नम्र सुझाव है कि संघ यदि श्रुताभ्याभ्यास के लिये योग्य शिष्यों को यहीं भेज दे तो मैं श्रुताभ्यास करने वाले मुनियों को पर्याप्त समय दूंगा। इससे मैं अपने आरंभ किये हुए ध्यान योग का भी निर्वाह कर लूंगा और श्रुतसेवा की संघ की आज्ञा का भी निर्वाह कर लूंगा।"