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आध्यात्मिक आलोक तो इस बात का है कि शासन भी इस ओर ध्यान नहीं देता और देश की उज्ज्वल संस्कृति के विनाश को चुपचाप बर्दाश्त कर रहा है। देश के नौनिहाल बालकों के भविष्य की भी उसे चिन्ता नहीं है जिन पर देश और समाज का भार आने वाला
बहुत-सी कहानियां, उपन्यास, नाटक आदि भी ऐसे अश्लील होते हैं जो पाठकों की रुचि को विकृत करते हैं और कामवासना की वृद्धि करते हैं । इन सब चीजों से विवेकशील पुरुषों को बचना चाहिये । घर में गंदी पुस्तकों का प्रवेश नहीं होने देना चाहिये । जब तक बालक का संरक्षक किसी चित्रपट को स्वयं न देख ले
और संस्कार वर्धक या शिक्षाप्रद न जान ले तब तक बालकों को उसे देखने की अनुमति नहीं देनी चाहिये।
एक घटना प्रकाश में आई है । ग्यारह वर्ष के दो बालक चोरी करने निकलते हैं । उनमें से एक चोरी करने निकलता है और दूसरा द्वार पर रिवाल्वर लेकर खड़ा रहता है । सोचिए यह सब किसका प्रभाव है ? वास्तव में यह सिनेमा का ही कुप्रभाव है । ऐसी सैकड़ों घटनायें होती हैं और सिनेमाओं की बदौलत अनगिनत बुराइयां लोगों में प्रवेश कर रही हैं । सिनेमा व्यवसायियों को भी सोचना चाहिये कि वे भी समाज के अंग हैं और उसी समाज में उन्हें रहना है जिस समाज को वे तीव्रता के साथ पतन की ओर ले जा रहे हैं। हमारे प्राचीन साहित्य में अनेकानेक आदर्श और जीवन को उच्च बनाने वाले आख्यान विद्यमान हैं। उन्हें सुयोग्य रूप से न दिखलाकर गन्दे चरित्रों का प्रदर्शन करना किसी भी दृष्टि से सराहनीय नहीं कहा जा सकता।
जो लोग नैतिक आदर्शों में विश्वास रखते हैं, जो संस्कृति के प्रेमी और धर्मानुरागी हैं उनका कर्तव्य है कि वे इस विषय में समाज को शिक्षित और सावधान करें। इस बुराई को अधिक समय तक नहीं चलने देना चाहिये।
सदगृहस्थ ऐसे पापप्रचारक कार्यों को नहीं अपनाएगा । धन की प्राप्ति हो तो भी वह पापकृत्यों से दूर रहेगा । लोभ का संवरण किये बिना व्रतों की निर्मलता नहीं रह सकती।
बोलने और लिखने वाले पर बड़ा उत्तरदायित्व रहता है । यदि वह कन्दर्प कथा में लिप्त हो तो हजारों-लाखों को बिगाड़ देगा । जो कन्दर्प कथा लिखता है, कहता है या पढ़कर सुनाता है वह दूसरों के चित्त पर हिंसा, झूठ, आरंभ और कुशील का रंग चढ़ाता है । वह अनर्थदण्ड का भागी होता है । बोलने वाला