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आध्यात्मिक आलोक प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । वह आत्मोन्नति और आत्मविकास में साधक नहीं होकर बाधक ही होता है।
___ आत्मज्ञान संसार में सर्वोपरि उपादेय है । आत्मज्ञान से ही आत्मा का । अनन्त एवं अव्याबाध सुख प्रकट होता है । यह आत्मज्ञान साधना के बिना प्राप्त नहीं हो सकता । साधक स्व और पर को जान कर पर का त्याग कर देता है और स्व को ग्रहण करता है । स्व का परिज्ञान हो जाने पर वह समझने लगता है कि धन, तन, तनय, दारा, घर-द्वार, कुटुम्ब-परिवार आदि को वह भ्रमवश स्व समझता था, वे तो 'पर' हैं । ज्ञान विवेक आदि आत्मिक गुण ही 'स्व' हैं।
यस्यास्ति नैक्यं वपुषाऽपि सार्द्धम, तस्यास्ति किं पुत्रकलत्रमित्रैः । पृथक्कृते चणि रोम कूपा कुतो हि तिष्ठन्ति शरीरमध्ये ।।
आत्मा की जब शरीर के साथ भी एकता नहीं है तो पुत्र, कलत्र और मित्रों के साथ एकता कैसे हो सकती है ? यदि शरीर की चमड़ी को पृथक् कर दिया । जाय तो रोमकूप उसमें किस प्रकार रह सकते हैं ?
तात्पर्य यह है कि पुत्र कलत्र आदि का नाता इस शरीर के साथ है और जब शरीर ही आत्मा से भिन्न है तो पुत्र कलत्र आदि का आत्मा से नाता नहीं हो सकता । इस प्रकार का भेद ज्ञान जब उत्पन्न हो जाता है तब आत्मा में एक अपूर्व ज्योति जागृत होती है । उस समय ऐसा प्रतीत होता है मानों सिर पर लदा हुआ मनों (टनों वजन का भार उतर गया है | आत्मा को अद्भुत शान्ति प्राप्त होती है। उसमें निराकुलता प्रकट हो जाती है।
व्यवहारनय के कथन से जिन-जिन आचारों और व्यवहारों के द्वारा सुप्रवृत्ति-शुभप्रवृत्ति जागृत होती है, वें सब 'स्व' हैं । स्व का भान होने पर निज . की ओर की प्रवृत्ति विस्तृत होती जाती है और पर की ओर का विस्तार संकुचित होता जाता है । ऐसे साधक को स्वरमण में अभूतपूर्व आनन्द की उपलब्धि होती है। उस आनन्द की तुलना में पर वस्तुओं से प्राप्त होने वाला सुख नीरस और तुच्छ प्रतीत होने लगता है।
श्रावक आनन्द को भगवान महावीर के समागम से आत्मा की अनुभूति उत्पन्न हुई । उसने श्रावक के व्रतों को अंगीकार किया बाह्य वस्तुओं की मर्यादा की। वह अन्तर्मुखी होने लगा । भगवान ने उसे भोगोपभोग की विधि समझाते हुए फर्मादान की हेयता का उपदेश दिया । गृहस्थ का धनोपार्जन के बिना काम नहीं बलता, तथापि वह तो हो ही सकता है कि किन उपायों से वह धनोपार्जन करे और