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आध्यात्मिक आलोक व्यापार | किसी युग में दासों और दासियों के विक्रय की प्रथा प्रचलित थी । उस समय मनुष्यों को बेचा और खरीदा जाता था । मध्ययुग में कन्या विक्रय का रिवाज चालू हो गया । धनलोलुप लोग कन्या के बदले में कुछ रकम लिया करते थे, जिसे रीति के पैसे कहते थे । आज वर-विक्रय होने लगा है।
जिसे बालिका के बदले रकम लेने का ख्याल हो वह भला बालिका का क्या हित सोच सकता है ? और जो अपनी अंगजात बालिका का ही हित-अहित नहीं सोचता वह अन्य प्राणियों का हिताहित सोचेगा, यह आशा रखना दुराशा मात्र ही है।
लालच के वशीभूत होकर कैश वाले भेड़ आदि पशुओं को बेचना भी केशवाणिज्य के अन्तर्गत है । जिसका एकमात्र लक्ष्य मुनाफा कमाना होगा वह इस बात का शायद ही विचार करेगा कि किसके हाथ बेचने से पशु को कष्ट होगा और किसको बेचने से वह आराम पाएगा । जो जानवरों को बेचने का धन्धा करता है
और पशुओं के बाजार में ले जा कर उन्हें बेचता है वह उपयुक्त-अनुपयुक्त ग्राहक का विचार न करके अधिक से अधिक पैसा देने वालों को ही बेच देता है । अदल बदल करने वाला कुछ हानि उठा कर बेच सकता है मगर लाभ उठाने की प्रवृत्ति वाला क्यों हानि सहन करेगा? वह तो कसाइयों तक को भी बेच देगा।
आशय यह है कि प्राणियों का विक्रय करना अनेक प्रकार के अनर्थों का कारण है । अतएव ऐसे अनर्थकारी व्यवसाय को व्रत धारण करने वाला श्रावक नहीं करता।
श्रावक ऐसा कोई कर्म नहीं करेगा जिससे उसके व्रतों में मलिनता उत्पन्न हो। वह व्रतबाधक व्यवसाय से दूर ही रहेगा और अपने कार्य से दूसरों के सामने सुन्दर आदर्श उपस्थित करेगा।
व्रत ग्रहण करने वाले को अड़ौसी-पड़ौसी चार चक्षु से देखने लगते हैं, अतएव श्रावक ऐसा धन्धा न करे जिससे लोकनिन्दा होती हो, शासन का अपवाद या अपयश होता हो और उसके व्रतों में बाधा उपस्थित होती हो ।
धर्म के सिद्धान्तों का वर्णन शास्त्रों में किया जाता है किन्तु उसका मूर्त एवं व्यावहारिक रूप उसके अनुयायियों के आचरण से ही प्रकट होता है । साधारण जनता सिद्धान्तों के निरूपण से अनभिज्ञ होती है, अतः वह उस धर्म के अनुयायियों से ही उस धर्म के विषय में अपना खयाल बनाती है। जिस धर्म के अनुयायी सदाचारपरायण, परोपकारी, और प्रामाणिक जीवनयापन करते हैं, उस धर्म को लोग