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आध्यात्मिक आलोक
407 अपने शिष्यों को मौखिक रूप में उन्हें सिखाया । जिन्होंने सीखा उन्होंने अपने शिष्यों को भी मौखिक ही सिखाया । इस प्रकार शिष्य-प्रशिष्य की परम्परा चलती रही। इसी कारण भगवान का वह उपदेश 'श्रुत' इस नाम से विख्यात हुआ । 'श्रुत' का अर्थ होता है-सुना हुआ ।
दुर्भिक्ष के समय में श्रुत को सीखने-सिखाने की व्यवस्था नहीं रही और अनेक श्रुतधर कालकवलित हो गए। इस कारण श्रुत का बहुत-सा भाग स्मृतिपथ से च्युत हो गया । जब दुर्भिक्ष का अन्त आया और सुभिक्ष हो गया तो संघ को एकत्र किया गया । संतों की मण्डली पटना में जमा हुई । आचार्य संभूतिविजय के नेतृत्व में ग्यारह अंगों तक को व्यवस्थित किया गया । बारहवें अंग दृष्टिवाद का कोई ज्ञाता उनमें नहीं रहा । विदित हुआ कि उसके ज्ञाता श्री भद्रवाहु हैं जो उस समय वहां उपस्थित नहीं थे । तब उन्हें बुलाने का उपक्रम किया गया जिससे द्वादशांगी पूर्णरूप में व्यवस्थित हो जाए ।
इससे आगे का वृत्तान्त यथासमय आप सुन सकेंगे । जो साधक चारित्र की आराधना करता हुआ श्रुत की आराधना करता है, उसका इहलोक और परलोक में परम कल्याण होता है।