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आध्यात्मिक आलोक आग लगाई जाती है । सदगृहस्थ को ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए । फसल बढ़ाने के लिए, अन्य किसी भी प्रयोजन से या जंगलों और मैदानों की सफाई के लिए व्यापक आग लगाना घोर हिंसा का कारण है, इससे असंख्य त्रस-स्थावर जीवों की घात होती है। घर में कचरा साफ करते समय आप देख सकते हैं कि किसी जीव की घात न हो जाय किन्तु जब जंगल में आग लगाई जाय तब कैसे देखा जा सकता है ? जीवों की यतना किस प्रकार हो सकती है ? उस सर्वग्रासी आग में सूखे के साथ गीले वृक्ष, पौधे आदि भी भस्म हो जाते हैं । कितने ही कीड़े-मकोड़े
और पशु-पक्षी आग की भेंट हो जाते हैं । अतएव यह अतीव क्रूरता का कार्य है। मनुष्य थोड़े से लाभ या सुविधा के लिए ऐसी हिंसा करके घोर पापकर्म का उपार्जन करता है । अगर श्रावक को घरू खेत की सफाई का काम करना पड़े तो भी वह अधिक से अधिक यतना से काम लेगा किन्तु आग लगाने का धन्धा तो किसी भी स्थिति में नहीं करेगा।
बाहर की सारी वृत्तियां और समस्त व्यापार अहिंसा-सत्य को चमकाने के लिए हैं । जिस प्रवृत्ति से अहिंसा का तेज बढ़ता है वही प्रवृत्ति आदरणीय है । प्राणी मात्र को आत्मवत् समझने वाला कठोर तपस्या करने वाले के समान होता है। भूत (जीव) दया ही सच्ची प्रभु भक्ति है ।
किसी बादशाह के यहां एक विश्वासपात्र खोजा रहता था । बचपन से ही बादशाह के पास रहा और पला था। वहीं नौकरी करता रहा । जीवन अस्थिर और उम्र नदी के प्रवाह की तरह निरन्तर बहती जा रही है। धीरे-धीरे खोजा बूढा हो गया। तब उसने सोचा-'जीवन की संध्या वेला आ पहुँची है । यह सुरज अब अस्त होने को ही है । बादशाह से अनुमति लेकर खुदा की कुछ इबादत कर लूं तो आगे की जिन्दगी सुधर जाय ।' उसने बादशाह के पास जाकर अदब के साथ अपनी हार्दिक भावना प्रकट की और कहा-"बादशाह सलामत, आपकी चाकरी करते-करते बूढ़ा हो गया हूँ। आपकी कृपा से यह जीवन आराम से बीता है मगर आगे की जिन्दगी के लिए भी कुछ कर लेना चाहिए। उसके लिए खुदा की चाकरी करनी होगी। आप आज्ञा दें तो कुछ करूं । मैं मक्का शरीफ की हज करने जाना चाहता हूँ।"
बादशाह ने भले काम में रुकावट डालना ठीक नहीं समझा । अतः उसे इजाजत दे दी और उसकी मंशा पूरी करने को कुछ अशर्फियां भी दे दी । खोजा ने सिर मुंडवा लिया । तीर्थयात्रा के समय कई नियमों का पालन करना पड़ता है। अगर उन नियमों का पालन न किया जाय तो तीर्थयात्रा निरर्थक समझी जाती है। जैसे किसी ने लिखा है