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आयात्मिक आलोक है। उस पर हाथी को लुभाने के लिए कृत्रिम हथिनी बना कर खड़ी कर दी जाती है अधवा कोई खाद्य पदार्थ रख दिया जाता है । हथिनी अथवा खाद्य वस्तु को देख कर हाधी प्रलोभन में पड़ कर उस पर चला जाता है और गड्ढे में गिर जाता है । गड्ढे में गिरने के बाद उसे कई दिनों तक भूखा-प्यासा रखा जाता है । तत्पश्चात् थोड़ी-थोड़ी खुराक दे कर उसे वशीभूत किया जाता है।
दोहड़ वनों में प्रकृति की असीम सम्पदा विखरी पड़ी है । अपनी बढ़ी चढ़ी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव वनों पर भी आक्रमण करता है और उस सम्पदा को लूटता है । जव वन्य सम्पदा लुट जाती है और पशुओं को पर्याप्त खुराक नहीं मिलती तब वे खेतों को ओर बढ़ते हैं । अगर मनुष्य वनों को पशुओं के लिए छोड़ दे तो उन्हें खेतों को उजाड़ने को आवश्यकता हो न हो।
किन्तु मानव तो यही समझता है कि सारी धरती का पट्टा ईश्वर ने उसी को लिख कर दे दिया है । मनुष्य के अतिरिक्त मानों अन्य किसी प्राणी को जीवित रहने का अधिकार ही नहीं है, कैसी संकीर्ण भावना है। कितनी अधम स्वार्थान्धता है।
जो मनुष्य हाथी के दांतों का उपयोग करने के लिए बड़े-बड़े हाथियों का वध करता है और उस वध के परिणामस्वरूप तैयार होने वाले चूड़ों को सुहाग का चिन्ह समझता है, उस मनुष्य से यह आशा कैसे की जाय कि वह जानवरों के प्रति न्याय करेगा । उनके अधिकारों का अपहरण नहीं करेगा?
हाथीदांत को अनेक वस्तुएं बनती हैं। पहले उसकी चड़ियां पहनी जाती थीं। आजकल भी राजस्थान में बाहुओं पर आभूषण के रूप में हाथीदांत पहनने का रिवाज है । वह मंगल सूचक माना जाता है । मगर आम तौर पर अब प्लास्टिक की चूड़ियों ने हाथीदांत का स्थान ले लिया है । हाथीदांत के चूड़ों का प्रचलन बन्द करने के लिए साधकों को बड़ी प्रेरणा देनी पड़ी थी।
आनन्द के समय में दन्त वाणिज्य बहुत होता था, अतएव इसको, रोकने के लिए भगवान महावीर स्वामी को इसके त्याग का खास तौर से उपदेश देने को आवश्यकता हुई । दांतों को प्राप्त करने के लिए हिंसा तो होती ही है, और संभाल कर न रखा जाय तो उनमें त्रस जीवों की उत्पत्ति भी हो जाती है और फिर उनको हिंसा का भी प्रसंग उपस्थित होता है । इस प्रकार हिंसा जनक होने के कारण दन्तवाणिज्य कर्मादानों में परिगणित किया गया है । यह वाणिज्य व्रतधारी श्रावक के लिए सर्वथा त्याज्य है। .