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आध्यात्मिक आलोक
395 पिण्ड छोड़ता है । अनुभवी लोगों का कथन है कि पचहत्तर प्रतिशत लोगों को तमाखू के सेवन से यह बीमारी उत्पन्न होती है ।
आखिर मनुष्य का विवेक इतना क्षीण कैसे हो गया है कि वह अपने जीवन और प्राणों की परवाह न करके जहरीले पदार्थों का सेवन करने पर उतारू हो गया है। अपने हाथों अपने पांव पर कुल्हाड़ा मारने वाला क्या बुद्धिमान कहा जा सकता है ? यह एक प्रकार का आत्मघात है।
पाश्चात्य डाक्टरों ने तमाखू के सेवन से होने वाली हानियों का अनुभव किया है और लोगों को सावधान किया है। पर इस देश के लोग कब इस विनाशकारी चंगुल से छुटकारा पायेंगे ।
आपको शायद विदित हो कि तमाखू भारतीय वस्तु नहीं है। प्राचीनकाल में इसे भारतवासी जानते तक नहीं थे। यह विदेशों की जहरीली सौगात है और जब विदेशी लोग इसका परित्याग करने के लिये आवाज बुलन्द कर रहे हैं तब भारत में इसका प्रचार बढ़ता जा रहा है | आज सैकड़ों प्रकार की नयी-नयी छाप की बीड़ियां प्रचलित हो रही हैं।
भारत के व्यापारी जनता के स्वास्थ्य की उपेक्षा करके प्रायः पैसा कमाने की वृत्ति रखते हैं। अन्य देशों में तो देश के लिये हानिकारक पदार्थों का विज्ञापन भी समाचार पत्रों में नहीं छापा जाता, मगर यहां ऐसे आकर्षक विज्ञापन छापे जाते हैं कि पढ़ने वाले का मन उसके सेवन के लिये ललचा जाये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
जो व्यापारी बीड़ी, जर्दा, सिगरेट, सुंघनी आदि का व्यापार करते हैं वे जहर फैलाने का धन्धा करते हैं । समझदार व्यापारी को इस धन्धे से बचना चाहिये। ___ जनता का दुर्भाग्य है कि आज बीड़ी-सिगरेट आदि की बिक्री एक साधारण बात समझी जाती है । कोई वस्तु जब समाज में निन्दनीय नहीं गिनी जाती तो उसके विक्रय और ले जाने लाने आदि की खुली छूट मिल जाती है किन्तु ऐसे उदार हृदय लोग कम ही मिलेंगे जो इन विषैली वस्तुओं के विक्रय का त्याग करदें । जो ऐसा करेंगे वे कर्तव्यनिष्ठ समझे जायेंगे ।
दुर्बल हृदय मनुष्य प्रायः अनुकरणशील होता है। वह कमजोरी को जल्दी पकड़ लेता है । जिसकी विचारशक्ति प्रौढ़ है वह अन्धानुकरण नहीं करता । अपने विवेक की तराजू पर कर्तव्य-अकर्तव्य को तोलकर निर्णय करता है । वह जनता के लिये हानिकारक वस्तु बेच कर उसके साथ अन्याय और धोखा नहीं करता । देश और समाज के अहित में वह निमित्त नहीं बनता ।