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आध्यात्मिक आलोक
397 जो साधक प्रमाद और मोह से ग्रस्त हो जाता है, वह भाव-विष का सेवन करता है। इस भाव-विष के प्रभाव से उसकी चेतना मूर्छित, सुप्त और जड़ीभूत हो जाती है।
विष का प्रभाव यदि फैलने लगे और अवरोध न किया जाये तो वह सारे शरीर को सड़ा कर विनष्ट कर देता है। भाव-विष इससे भी अधिक हानिकर होता है। यह अनेकानेक जीवनों को बर्बाद करके छोड़ता है। अतएव जिनको वीतराग देव की सुधामयी वाणी को श्रवण करने का अवसर प्राप्त हुआ है उन्हें विषय-कषाय के विष का संचार नहीं होने देना चाहिये। जब विष का संचार होने लगे तो विवेक रूपी अमृत से उसे शान्त कर देना चाहिये। ऐसा न किया गया तो निस्सन्देह आत्मा का विनाश हुए बिना नहीं रहेगा।
सिंहगुफावासी मुनि के मन में भाव-विष का संचार हुआ, पर वह विष फैलने से पहले ही शान्त कर दिया गया। रूपकोषा रूपी विषभिषक् का सुयोग उन्हें मिल गया। उसकी चिकित्सा से वह नष्ट हो गया।
रूपकोषा अपने पूर्वकालिक जीवन में वेश्यावृत्ति करती थी, फिर भी उसने मार्ग से च्युत होते हुए मुनि को स्थिर किया और संयम के पथ पर आरूढ़ किया। यह नारी जाति की शासन के प्रति सराहनीय सेवा है। शास्त्रों में इस प्रकार के अनेक आख्यान उपलब्ध हैं जिनसे नारी जाति की सेवा का पता लगता है। राजीमती की कथा से आप सब परिचित ही होंगे। उसने मुनि रथनेमि के भाव-विष का निवारण किया. था। वास्तव में श्रमण संघ का यह रथ चारों चक्रों के उद्योग और सहयोग से ही चल रहा है। अतएव आज के श्रावकों और श्राविकाओं को भी अपना उत्तरदायित्व अनुभव करना चाहिये। संघ के प्रत्येक अंग को दूसरे अंगों के संयम में सहायक बनना चाहिये।
रूपकोषा ने समझाया-"महात्मन् ! यह संयम रूपी रत्नकम्बल बहुत कीमती है, यह अनमोल है और तीनों लोकों में इसकी बराबरी करने वाली अन्य कोई वस्तु नहीं है। महान-महान पुण्य का जब उदय होता है तब यह प्राप्त होता है। ऐसे महामूल्यवान् रत्न को आप भुला रहे हैं ।" ।
रूपकोषा के संबोधन का परिणाम यह हुआ कि विष का विस्तार नहीं हुआ और वह अमृत के रूप में बदल गया। विकार उत्पन्न होने पर यदि सुसंस्कार जागृत हो जाये तो यह विष की परिणति अमृत में होना है। ____ रूपकोषा से विदा लेकर मुनि अपने गुरुजी के पास जाने लगे। उनके मन में तीव्र इच्छा जागृत हुई कि अतिक्रम, व्यतिक्रम एवं अतिचार का संशोधन शीघ्र से शीघ्न