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आध्यात्मिक आलोक
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मगर एक अपनी दृष्टि का विष उसमें मिला देता है और दूसरा उसे दृष्टि के अमृत से पूत बना देता है । “यथा दृष्टिस्तथा सृष्टिः" की उक्ति वास्तव में सत्य है ।
मुनि ने पहले भी रूपकोषा के मुखमण्डल को देखा था और अब भी देख रहे थे । मगर इस समय की उनकी दृष्टि में अनेक सात्विक भाव भरे हए थे । वह सोचने लगे रूपकोषा वेश्या नहीं महान् शिक्षिका है, संयम और आत्मा की संरक्षिका है। वास्तव में मैं भान भूल गया था, पथभ्रष्ट हो गया था । रूपकोषा ने मुझे अधःपतन के गर्त से उबार लिया है । मैं अपने संयम रूप चिन्तामणि को गंवाने पर उतारू हो रहा था । कृतज्ञ हूं इस देवी का जिसने स्थिरीकरण आचार का अवलम्बन लेकर मुझे पाप से बचा लिया ।
इस प्रसंग से रूपकोषा ने मुनि का मन बदल दिया । उन्होंने कहा-"मैं रूपकोषा पर रोष कर रहा था मगर असली रोष का भाजन तो मैं स्वयं हैं, जो संयम को मलिन कर रहा हूँ।"
बन्धुओ ! जो बड़े-बड़े प्रलोभन के सामने भी अपने संयम को स्थिर रखते हैं वे महापुरुष धन्य हैं और उन्हीं का इस लोक और परलोक में कल्याण होता है।