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आध्यात्मिक आलोक . चिथड़ा या पुराना टाट का टुकड़ा हो । यह देख कर मुनि को आवेश आ जाना स्वाभाविक ही था । उन्होंने कहा-"रूपकोषा ! तू अत्यन्त ही नादान है।"
रूपकोषा बोली-"महाराज ! मैंने क्या नादानी की है ?" मुनि-"मूल्यवान रत्नकंबल का क्या यही उपयोग है?"
रूपकोषा-"तो आपका अभिप्राय यह है कि जो वस्तु मूल्यवान हो उस का उपयोग साधारण काम में नहीं करना चाहिए ?" .
मुनि-"इस बात को तो बच्चा-बच्चा समझता है। क्या तुम नहीं समझती ?" . .
रूपकोषा-"मैं तो बखूबी समझती हूँ पर आप ही इस बात को नहीं समझते। आश्चर्य है कि जो बात मुझे समझाना चाहते हैं उसे आप स्वयं नहीं समझते । आप ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे' की कहावत चरितार्थ कर रहे हैं।" . . .
मुनि-"सो कैसे ? मैंने किस वस्तु का दुरुपयोग किया है ?"
रूपकोषा-"मोह के उदय से आपकी विवेकशक्ति सो गई है, इसी कारण आप समझ नहीं पा रहे हैं।"
मुनि-"क्यों पहेली बुझा रही है।"
रूपकोषा-"पहेली नहीं बुझा रही महाराज ! आपके हृदय की आग बुझा रही हूँ । मूल्यवान रत्नकंबल से पैर पौंछना आप नादानी समझते हैं परन्तु रत्नकंबल अधिक मूल्यवान है अथवा संयम-रल अधिक मूल्यवान है ? रत्नकंबल तो सोने चांदी के टुकड़ों से खरीदा जा सकता है मगर संयमरल तो अनमोल है । तीन लोक का ऐश्वर्य दे कर भी संयम नहीं खरीदा जा सकता । क्या उसका उपयोग आपने अधम काम के लिए नहीं किया है ?"
___ रूपकोषा के वचनों का बाणं लक्ष्य पर लगा | मुनि के अज्ञान का पर्दा हट गया । मोह का अंधकार सहसा विलीन हो गया । भ्रम भाग गया । वे रूपकोषा की ओर विस्मयपूर्ण दृष्टि से देखने लगे । पहले की और अब की दृष्टि में आकाश-पाताल जितना अन्तर था, अब तक उन्होंने रूपकोषा के जिस रूप को देखा था, यह रूप उससे एकदम निराला था । उसमें घोर मादकता थी। इसमें पावनी . शक्ति थी । वह रूप मार्ग भुलाने वाला था, यह मार्ग बतलाने वाला था, उस रूप ने उनमें आत्मविस्मृति उत्पन्न कर दी थी, पर इसने स्वरूप की स्मृति जागृत कर दी।. .
वास्तव में पदार्थ तो अपने स्वरूप में जैसे हैं, वैसे ही हैं, परन्तु उन्हें देखने वालों की वृत्ति विभिन्न प्रकार की होती है । दो मनुष्य एक ही वस्तु को देखते हैं..