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आध्यात्मिक आलोक कई आचार्य धी-दूध के विक्रय को भी रसवाणिज्य कहते हैं । इसमें सन्देह नहीं कि भारतवर्ष में प्राचीन काल में दूध, घृत का बेघना निन्दनीय समझा जाता था। मनुस्मृतिकार ने तो यहां तक कह दिया है ?
- त्र्यहेण शूद्रो भवति ब्राह्मण: सीरविक्रयात् । अर्थात् कोई ब्राह्मण यदि दूध बेचता है तो वह तीन दिनों में ब्राह्मण नहीं रहता शूद्र हो जाता है ।
___ यद्यपि मनुस्मृति में सिर्फ ब्राह्मण के लिए ऐसा कहा गया है फिर भी इससे दुग्ध विक्रय गर्हित है, यह आभास तो मिलता ही है । तब श्रावक दूध कैसे बेच सकता है ? यह विचारणीय है । क्योंकि श्रावक का दर्जा ब्राह्मण से निम्न नहीं हो सकता । भारत की साधारण जनता भी दूध वेचना नफरत की निगाह से देखती आ रही है। लोग दूध बेचना पूत बेचना समझते थे । छाछ बेचना तो भारत में कलंक की बात गिनी जाती थी।
जैसे जैनाचार्यों ने श्रावक के कर्मों का विवेचन किया है, और पर्याप्त ऊहापोह किया है, उसी प्रकार वैदिक स्मृतियों में ब्राह्मणों के कर्मों का भी विवेचन किया गया है।
किन्तु पूर्वकालीन जीवन व्यवस्था में और वर्तमानकालीन व्यवस्था में बहुत अन्तर पड़ गया है । परिस्थितियां एकदम भिन्न प्रकार की हो गई हैं।
___ आज पैसा देने पर भी शुद्ध वस्तु का मिलना कठिन हो गया है । दूध, घी तथा अन्य खाद्य पदार्थों में मिलावट की जाती है, सरकार की ओर से मिलावट को रोकने के लिए तथा मिलावट करने वालों को दण्डित करने के लिए अलग से पदाधिकारी नियुक्त किये जाते हैं। उन पर प्रचुर धन व्यय किया जाता है मगर आज के जीवन में इतनी अधिक अप्रामाणिकता प्रवेश कर गई है कि सरकार का कोई भी प्रयास सफल नहीं हो पा रहा । अप्रामाणिकता पर नियन्त्रण करने के लिए नियुक्त बहुत से पदाधिकारी स्वयं अप्रामाणिकता में सम्मिलित हो जाते हैं । वे रिश्वत लेकर अप्रामाणिकता में सहायक बन जाते हैं और धड़ल्ले के साथ सब प्रकार की बेईमानी होती रहती है । जैसे-जैसे इलाज किया जाता है वैसे-वैसे बीमारी भी बढ़ती जाती है । कहा भी है 'मर्ज बढ़ता गया ज्यूंज्यूं दवा की' । यह कुचक्र कहाँ जाकर समाप्त होगा, नहीं कहा जा सकता । शासन की ओर से नवीन नवीन नियम . . और कानून बनाये जाएं और लोग नये-नये रास्ते खोजते जाएं तो देश किस अधःपतन के गड्ढे में गिरेगा, भगवान् ही जाने ।
सचमुच में समाज का सुधार कानून के बल पर नहीं हो सकता । दण्ड का भय अनैतिकता का उन्मूलन नहीं कर सकता । यह बात अब तक की स्थिति से