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आध्यात्मिक आलोक
कुम्भकार को अपनी बात कहने का मौका मिला। उसने कहा- बड़े विस्मय की बात है कि आप क्रियमाण कार्य को कृत कहना मिथ्या समझती हैं और जलते हुए चादर के एक छोर को 'चादर जला दिया' कहती हैं । आपके मन्तव्य के अनुसार तो चादर जली नहीं है । फिर आप मिथ्या भाषण कैसे करती हैं ?”
साध्वियां समझ गईं । इस युक्ति से उन्हें अपने भ्रम का पता चल गया ।
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सुदर्शना ने कहा - " भव्य ! हम आपके प्रति अत्यन्त कृतज्ञ हैं । आपने हमारी मिथ्या धारणा में संशोधन कर दिया है। अब तक हमने असत्य की श्रद्धा और प्ररूपणा की है, उसके लिए प्रायश्चित लेना होगा । भगवान् के श्रीचरणों में जाकर क्षमायाचना करनी होगी ।"
आत्म शुद्धि के लिए सरलता की अत्यन्त आवश्यकता है । जिस साधक का 'द सरल है, वह कदाचित् उन्मार्ग पर भी चला जाय तो शीघ्र सन्मार्ग पर आ सकता है । इसके विपरीत वक्र हृदय साधक शीघ्र समझता नहीं और कदाचित् समझ जाय तो भी अपने को न समझा हुआ प्रकट करता है । उसके हृदय में कपट होता है, जिसके कारण उसकी बाह्य क्रियाएं सफल नहीं हो पातीं । भगवान् कहते हैं
सोही उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई ।
जिसके अन्तःकरण में ऋजुता है, उसीका हृदय पवित्र है और जिसका हृदय पवित्र होता है वही वास्तव में धर्मात्मा है। साध्वी सुदर्शना के हृदय में सरलता थी । हजार साध्वियां उसके नेतृत्व में थीं। वह विदुषी और कार्यशीला थी । उसने गुरु के निकट जाकर निवेदन किया- "हमारी विचारसरणी अंशुद्ध थी। अब हमें अपनी मिथ्या धारणा का परिज्ञान हुआ है । हम आपके चरणों में नमस्कार करती हैं । समुचित प्रायश्चित देकर हमारी आत्मा की शुद्धि कीजिए ।"
इस प्रकार एक सामान्य व्रती श्रावक, साध्वी समूह के लिए प्रेरणास्रोत बन गया । उसमें तर्कबल नहीं था । तर्क करने से जय-पराजय की भावना का उदय हो सकता है और सत्य तत्व के निर्णय में कई बार वह बाधक बन जाता है | श्रावक ने युक्तिबल से काम लिया और अहंकार को आड़े नहीं आने दिया, अतएव सफलता शीघ्र मिल गई । किसी कवि ने ठीक कहा है
'फिलसफी की बहस के अन्दर खुदा मिलता नहीं । डोर को सुलझा रहा हूं और सिरा मिलता नहीं ।"