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आध्यात्मिक आलोक रखता है । ऐसा साधक ही अहिंसा सत्य आदि का निर्वाह करके आदर्श-जीवन व्यतीत कर सकेगा।
साधक के लिए आवश्यक है कि वह जीवन के आन्तरिक रूप (विचार) और बाह्य रूप (आचार-व्यवहार ) को एक-सा संयममय बनाए रखे । जैसी उत्तमता वह बाहरी व्यवहार में दिखलाता है वैसी ही उसके अन्तःकरण में होनी चाहिए। बड़े से बड़ा प्रलोभन होने पर भी उसे फिसलना नहीं चाहिए ।
जो मनुष्य भोगोपभोग में संयम नहीं रखता वह प्रलोभनों का सामना नहीं कर सकता । प्रलोभन उसे डिगा देते हैं और कर्तव्य से च्युत कर देते हैं। उसकी साधना विफल हो जाती है। भगवान महावीर ने ऐसी सुन्दर आचार-नीति का उपदेश दिया है कि जिससे जीवन के लिए आवश्यक कोई कार्य भी न रुके और आत्मा बन्ध से लिप्त भी न हो।
दूसरों का सफाया कर दो, सर्वस्व लूट लो, इत्यादि विचार दूसरों ने लोगों के समक्ष रखे और भय एवं हिंसा के आश्रय से पापों को मिटाने का प्रयत्न किया किन्तु महावीर स्वामी ने कहा-यह गलत तरीका है । हिंसा से हिंसा नहीं मिटाई जा सकती, पाप के द्वारा पाप का उन्मूलन नहीं हो सकता । रक्त से रंजित वस्त्र को रक्त से धोकर स्वच्छ नहीं किया जा सकता । जिस बुराई को मिटाना चाहते हो उसी का आश्रय लेते हो, यह तो उस बुराई को मिटाना नहीं है बल्कि उसकी परम्परा को चालू रखना है । हिंसा, परिग्रह, भ्रष्टाचार और बेईमानी को मिटाना चाहते हो और उन्हीं का सहारा पकड़ते हो, यह उलटी बात है।
श्रीमन्तों को गोली मार दो और उनका धन लूट लो, क्योंकि ऐसा करने से गरीबों की गरीबी मिट जाएगी और मुनाफाखोरों का अन्त हो जाएगा । यह साम्यवादियों की धारणा है और यही साम्यवाद का मूल आधार है । वे लोग वर्ग-संघर्ष को उत्तेजना देकर अशान्ति उत्पन्न करने में विश्वास करते हैं । मगर क्या ये तरीके सही हैं ? अशान्ति के द्वारा शान्ति स्थापित नहीं की जा सकती । चिन्तन करने पर ये तरीके सही नहीं मालूम होगे । एक से छीन कर दूसरे को देने से क्या मुनाफा कमाने की वृत्ति का अन्त आ जाएगा ? ऐसा करने से वैर-विरोध मिट जाएगा ? नहीं, इससे तो एक के बदले दूसरी बुराई पैदा होती रहेगी और बुराइयों का तांता लग जाएगा ।
समाज में जो आर्थिक विषमता है, उसे मिटाने के लिए ऊपर से थोपा हुआ कोई भी हल कामयाब नहीं हो सकता। न तो लूटपाट के द्वारा उसे दूर किया जा सकता है और न कानून की सहायता से ही। आज शासन की ओर से