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[६२] कर्मादान के भेद
आचारांग सूत्र में अन्यान्य जीवों की रक्षा के समान तेजस्काय के जीवों की भी रक्षा का विधान किया गया है । तेजस्काय के जीवों की मान्यता जैन-दर्शन की असाधारण मान्यता है । वनस्पतिकाय की सजीवता का तो औरों को भी आभास मिला था मगर उन्हें तेजस्काय के जीवों का पता नहीं चला । तेजस्काय के जीवों का परिज्ञान दिव्य-दृष्टि सम्पन्न जैन महर्षियों को ही हुआ।
तेजस्काय के जीव एकेन्द्रिय होने पर भी वायुकाय के समान संचरणशील हैं। अतएव स्थावर होने पर भी उनकी गणना गति की अपेक्षा से त्रस जीवों में की गई
अध्यात्ममार्ग का साधक अहिंसा के पथ पर चलता है तथा भावहिंसा और द्रव्यहिंसा दोनों से बचता रहता है। अध्यात्ममार्ग के साधक दो प्रकार के होते हैंअनगार और गृहस्थ । जहाँ तक त्रस जीवों की हिंसा के त्याग का प्रश्न है, दोनों उसके त्यागी होते हैं, अलबत्ता गृहस्थ उसमें कुछ अपवाद रखता है । वह संकल्पी हिंसा का ही त्याग करता है, आरंभी हिंसा का त्याग नहीं कर पाता; जबकि गृहत्यागी मुनि दोनों प्रकार की हिंसा के तीन करण और तीन योग से त्यागी होते हैं । यद्यपि गृहस्थ श्रावक भी सब प्रकार की हिंसा को त्याज्य मानता है और उससे यथासंभव बचने का प्रयत्न भी करता है, मगर लाचारी के कारण वह सम्पूर्ण त्याग नहीं सकता। लापरवाही उपेक्षा या अश्रद्धा के कारण वह त्याग न करता हो, ऐसी बात नहीं है । श्रावक का लक्ष्य अपनी समस्त वृत्तियों पर अंकुश रखने का ही होता है।
___अपनी वृत्तियों को नियन्त्रित करने के लिए श्रावक भोग उपभोग के समस्त साधनों की भी एक सीमा निर्धारित कर लेता है । अभी इसी व्रत का विवेचन चल रहा है । इसी विवेचन के प्रकरण में कर्मादानों का उल्लेख किया गया है और भाड़ी कम्मे तथा फोड़ीकम्मे के सम्बन्ध में कल कहा जा चुका है । इन कर्मो से ।