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आध्यात्मिक आलोक वीर हैं वह कर्म के मार्ग में अवतीर्ण होगा तो वहां महान् कर्म करेगा और धर्म के मार्ग में आएगा तो वहां भी उल्लेखनीय कार्य किये बिना नहीं रहेगा।
रूपकोषा ने समझ लिया कि मुनि में लगन है, साहस है, पराक्रमशीलता है, जीवट है। इन्हें सिर्फ सही दिशा में मोड़ने की आवश्यकता है । जिस समय इनकी प्रवृत्ति सही मार्ग पर हो जाएगी, उसी समय ये साधना में भी कमाल कर दिखलाएंगे।
रूपकोषा ने मुनि को ठीक रास्ते पर लाने की योजना गढ़ ली परन्तु मुख से कुछ नहीं कहा । उसने कम्बल देख कर उसकी अत्यन्त सराहना की । मुनि अपने को कृतार्थ समझने लगे और अपनी सफलता पर गर्व अनुभव करने लगे।
रूपकोषा स्नानागार में जाकर जब स्नान करके लौटी तो रलकम्बल को उठा कर उससे अपने पैर पोंछने लगी । यह देख कर मुनि के विस्मय की सीमा नहीं रही । और फिर उसने पैर पोंछ कर उसे एक कोने में फेंक दिया । कम्बल की इस दुर्गति को देख कर तपस्वी के भीतर का नाग (क्रोध ) जग उठा । उसे रूपकोषा का यह व्यवहार अत्यन्त ही अयोग्य प्रतीत हुआ । कम्बल के साथ मुनि की आत्मीयता इतनी गहरी हो गई थी कि कम्बल का यह अपमान उन्हें अपना ही घोर अपमान प्रतीत हुआ।
___मुनि सोचने लगे-'मैं समझता था कि रूपकोषा बुद्धिमती तथा चतुर है । वह व्यवहारकुशल है । किन्तु ऐसा समझ कर मैंने भयानक भूल की है । अरे ! यह तो फूहड़ है, विवेक विहीन है, असभ्य है ।' जब उनसे न रहा गया तो बोले-"क्या तुमने नशा किया है या तुम्हारा सिर. फिर गया है ! यह टाट का टुकड़ा है या रत्नजटित कम्बल ? क्या समझा है इसे तुमने ? जिस कम्बल को प्राप्त करने के लिए मैंने लम्बा प्रवास किया, जंगलों की खाक छानी, अनेक संकट सहे और नेपाल नरेश के सामने जाकर दो बार हाथ फैलाये, जिसके लिए मैंने अपना सर्वस्व निछावर कर दिया, उस कम्बल की तुम्हारे द्वारा ऐसी दुर्गति. की गई ? यह कम्बल का नहीं मेरा अपमान है, मेरी सद्भावना को ठोकर लगाना है! कृतज्ञता के बदले ऐसी कृतघ्नता!"
संपकोषा ने समझ लिया कि मुनि के कायाकल्प का यही उपयुक्त अवसर
आगे का वृत्तान्त यथावसर सुनाया जायगा । परन्तु जिनवाणी के अनुसार हमें भी अपना कायाकल्प करना है । जो भव्यजन जिनवाणी का अनुसरण करके अपना जीवनकल्प करेंगे, और जिनवाणी के अनुकूल व्यवहार बनाएंगे वही उभयलोक में कल्याण के भागी होंगे।