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आध्यात्मिक आलोक
293 पशुओं की सन्तति उत्पन्न होने पर संख्या में वृद्धि हो जाती है, यह स्वभाविक है । किन्तु एक तो उस वृद्धि को लाभ का कारण बनाना और दूसरे संरक्षण की भावना से उनको रखना अलग-अलग बातें हैं । ऐसी बातों का स्पष्टीकरण अगर व्रत ग्रहण करते समय ही कर लिया जाय तो अधिक अच्छा । बाद में किया जाय तो इस बात की सावधानी रखनी चाहिए कि मेरे किए हुए निर्णय में कहीं मेरी ममत्व-बुद्धि तो मुझे धोखा नहीं दे रही है । इस प्रकार की जागरूकता व्रत की रक्षा करने में सहायक होगी । किसी ने पचास हजार के धन का परिमाण किया, फिर ब्याज में अतिरिक्त धन आ गया । उस अतिरिक्त धन को अगर कोई अतिक्रमण नहीं मानता तो यह अनुचित है।
अतिचार केवल जानने के लिए नहीं है, बचने के लिए भी है । जानी हुई वातों को केवल दिमाग की वस्तु बना कर रखा जाय और उनका आचरण से कोई सरोकार नहीं रखा जाय तो ऐसी जानकारी की कोई उपयोगिता नहीं होती । ज्ञान वही सार्थक है जिसके अनुसार वि किया जाता है । 'ज्ञानं भार क्रिया विना' अगर । ज्ञान के अनुसार प्रवृत्ति नहीं की गई तो वह ज्ञान बोझ रूप ही है।
परिग्रह परिमाण पांच अणुव्रतों में अन्तिम है और चार व्रतों का संरक्षण करना एवं बढ़ाना इसके अधीन है । परिग्रह को घटाने से हिंसा, असत्य, अस्तेय, कुशील इन चारों पर रोक लगती है। अहिंसा आदि चार व्रत अपने आप पुष्ट होते रहते हैं।
___ परिग्रह परिमाण द्रत से महत्व बढ़ता है, घटता नहीं। जीवन में शान्ति और सन्तोष प्रकट होने से सुख की वृद्धि होती है। निश्चिन्तता और निराकुलता आती है। ऐसी स्थिति उत्पन्न होने से धर्म-क्रिया की ओर मनुष्य का चित्त अधिकाधिक आकर्षित होता है । इस व्रत के ये वैयक्तिक लाभ हैं । किन्तु सामाजिक दृष्टि से भी यह व्रत अत्यन्त उपयोगी है । आज जो आर्थिक वैषम्य दृष्टिगोचर होता है, इस व्रत के पालन न करने का ही परिणाम है । आर्थिक वैषम्य इस युग की एक बहुत बड़ी समस्या है। पहले बड़े-बड़े भीमकाय यन्त्रों का प्रचलन न होने के कारण कुछ व्यक्ति आज की तरह अत्यधिक पूंजी एकत्र नहीं कर पाते थे; मगर आज यह बात नहीं रही। आज कुछ लोग यन्त्रों की सहायता से प्रचुर धन एकत्र कर लेते हैं तो दूसरे लोग धनाभाव के कारण अपने जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति करने से भी वंचित रहते हैं। उन्हें पेट भर रोटी, तन ढंकने को वस्त्र और औषध जैसी चीजें भी उपलब्ध नहीं । इस स्थिति का सामना करने के लिए अनेक वादों का जन्म हुआ है । समाजवाद, साम्यवाद, सर्वोदयवाद आदि इसी के फल हैं । प्राचीन काल में अपरिग्रहवाद के द्वारा इस समस्या का समाधान किया जाता था । इस वाद