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आध्यात्मिक आलोक
संयोग मूला जीवेन, प्राप्ता दुःखपरम्परा । अनादि काल से जीव दुःखों से घिरा हुआ है और अब तक भी उसके दुःखों का कहीं ओर-छोर नजर नहीं आता, इसका मूल कारण पर-संयोग है। पर-संयोग दो प्रकार का है- बाह्य और आन्तरिक, जिसे द्रव्य संयोग और भाव संयोग कह सकते हैं । धन-वैभव आदि भौतिक पदार्थों का संयोग बाह्य और क्रोध, लोभ, मोह, ममता आदि वैभाविक भावों का संयोग आन्तरिक संयोग है । इनमें से बाह्य संयोग से विमुक्ति पाना उतना कठिन नहीं है जितना आन्तरिक संयोग से।।
काम-क्रोध आदि विकार जीव को अपने स्वरूप की ओर उन्मुख नहीं होने देते । ज्यों-ज्यों ये विकार घटते जाते हैं, बाहरी दौड़-धूप स्वतः कम होती जाती है। बास्य दौडधुप को रोकना उतना कठिन नहीं है जितना अन्तर की भावना को सीमित करना कठिन है।
__भावना के क्षेत्र में अहंकार, मान, महिमा, कामना को ऊर्ध्व दिशा कह सकते हैं, मोह, लोभ और तिरस्कार को अघोदिशा तथा काम को तिर्यक् दिशा कह सकते हैं । ज्ञानी चित्त के इन विकारों को सीमित करता-करता अन्ततः समूल नष्ट करने में समर्थ हो जाता है । कापुरुष (दुर्बल हृदय) के लिए अपनी भावनाओं का नियन्त्रण करना कठिन होता है । उसके चित्त में कामनाओं की जो चंचल हिलोरें उठती हैं, उन्हीं में वह बहता रहता है । उसको देहली भी डूंगरी जैसी लगती है । कहावत है'देहली (घर के दरवाजे की चौखट) हो गई डूंगरी, सौ कोसां भया बजार ।'
जब शुद्ध ज्ञानादिक का बल क्षीण होता है तो छोटे-मोटे विकारों पर विजय पाना भी कठिन होता है। परन्तु साधक का कर्तव्य है कि वह ऊंची दिशा में मन के भावों को मलिन न होने दे और लोभादि से नीचे न गिरे । स्थूलभद्र की साधना इसीलिए दुष्करतम कहलाई । काम का शस्त्र मृदुल होता है फिर भी बड़ी गहरी मार करता है।
परीषह के दो रूप होते हैं - अनुकूल परीषह और (२) प्रतिकूल परीषह । अनुकूल परीषह अर्थात् प्रलोभन । कोई साधक के सद्भूत अथवा असद्भूत गुणों की प्रशंसा करता है । साधक के लिए यह अनुकूल परीषह है । अपनी प्रशंसा सुनकर अगर वह गौरव का अनुभव नहीं करता, उसके मन में अभिमान नहीं जगता और अखंड समभाव में स्थिर रहता है तो वह परीषह विजेता है और यदि मन में अहंकार उत्पन्न हो जाता है तो समझना चाहिए कि वह परीषह से पराजित हो गया है, अपने पद से गिर गया है।