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[६०] कर्मादान-एक विवेचन
संसार में अनन्तानन्त जीव हैं और उन सब की पृथक-पृथक सत्ता है। सभी संसारी जीव कर्मोदय के अनुसार शरीर धारण करते हैं, जीवन व्यतीत करते हैं
और अन्त में मरण के शरण हो जाते हैं । इन अनन्तानन्त प्राणियों में से बहुत कम को विवेक शक्ति प्राप्त होती है, थोड़े से जीव ही कर्तव्य-अकर्तव्य को पहचान पाते हैं। धर्म-अधर्म का ज्ञान अधिकांश को नहीं है । पूर्व जन्म के सुकृत के फलस्वरूप विवेक का लाभ प्राप्त कर सकने वाले बहुत ही कम प्राणी हैं । विरले ही जीवों को ज्ञान प्राप्त होता है और उनमें से भी किसी-किसी को ही ज्ञान के फलविरति की प्राप्ति होती है । जीवन को पतन के मार्ग पर ले जाने वाले साधनों से यदि विरति उत्पन्न न हुई तो प्राप्त हुआ विपुल ज्ञान भी निष्फल है, क्योंकि कहा है
नाणस्स फलं विरई।
(ज्ञानस्य फलं विरतिः) ज्ञान की सफलता त्याग में है । जिन पदार्थों और जिन आन्तरिक विकारों को हम हेय समझते हैं, अकल्याणकर मानते हैं और घोर दुःख का कारण मानते हैं उनका भी यदि त्याग नहीं कर सकते तो वह ज्ञान किस मर्ज की दवा है ? उसका क्या फल मिला ? ऐसे ज्ञान को महापुरुष ज्ञान ही नहीं मानते । सर्प को सामने आते देख कौन ज्ञानवान-समझदार मनुष्य बचने के लिए दूर नहीं भाग जाता ? केवल नासमझ बालक ही सर्प को देख कर भी नहीं हटता है इसी प्रकार विषय रूपी विषधर से जो विमुख नहीं होता, समझना चाहिए कि वह समझदार नहीं, नासमझ है । उसे वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है । अतएव सच्चा ज्ञानी वही है जो विरमण करने योग्य पदार्थों एवं भावों से विरत हो जाता है और रमण करने योग्य सद्भावों में रमण करता है।