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आध्यात्मिक आलोक
जो विवेकशील साधक विरतिभाव के बाधक कारणों से बचता है, वही साधना में अग्रसर हो सकता है । विरति के बाधक कारण अतिशय लोभ, मोह आदि विकार हैं और उन विकारों से उत्पन्न होने वाले महान् आरम्भ-परिग्रह हैं । इस सिलसिले में कर्मादानों की चर्चा चल रही है । तीन कर्मादानों का विवेचन पहले किया जा चुका
हिमालय के दुर्गम मार्गों में साधक भले ही न गड़बड़ाए किन्तु प्रमाद और कषाय यदि उसके जीवन में प्रवेश कर जावें और वह उनका शिकार हो जाए तो गड़बड़ पैदा हुए बिना नहीं रहती । ऐसी स्थिति में उसे कोई नवीन सफलता नहीं प्राप्त हो सकती, यही नहीं वरन् पूर्व प्राप्त साधना की सम्पत्ति भी वह गंवा बैठता है। किसी धनवान अथवा अर्थी द्वारा कठिन परिश्रम करके प्राप्त किया हुआ धन यदि चोर चुरा ले या गुम हो जाय तो उसे कितनी मार्मिक वेदना होती है ? वह व्यवहार में बहुत संभल कर चलता है, फिर भी कदाचित् असावधान हो जाता है तो भयानक हानि उठाता है । इस प्रकार जब थोड़ी-सी असावधानी भी व्यवहार में घातक है तो आत्म साधक के जीवन की हानि कितनी बड़ी हानि कहलाएगी?
एक आदमी प्रवास का घोर कष्ट उठाकर और रात-दिन एक करके, कठिन परिश्रम करके, धन उपार्जित करके ला रहा हो और मार्ग में लुट जाए तो उसके हृदय में तीन विषाद होगा.। बाल-बच्चों वाला होगा तो उसे गृहस्थी की गाड़ी चलाने में कष्ट होगा । अगर वह कोई भिक्षुक है और उसने दार-परिग्रह नहीं किया है तो भी माल लुट जाने के दुःख से वह बच नहीं सकता ।
सिंह गुफावासी मुनि का रत्नकंबल लुट गया तो उनको बहुत दुःख हुआ । उस रत्नकंबल के साथ उनकी कई भावनाएं जुड़ी हुई थीं । अतएव उनके हृदय में कितनी व्याकुलता उत्पन्न हुई होगी, इसका अनुमान कोई भुक्तभोगी ही कर सकता है
इस मर्मबधिनी चोट से उन्हें जो आत्मग्लानि हुई उसे भगवान् सर्वज्ञ ही जान सकते हैं। मुनि के मन ने कहा-'रूपकोषा कंबल की प्रतीक्षा कर रही होगी । उसके समक्ष मैंने बड़े दर्प के साथ अपने पुरुषार्थ की डींग मारी थी । वह मेरी राह देख रही होगी। मैं उसके सामने खाली हाथ कैसे जाऊंगा ? रत्नकंबल मांगने पर उसे क्या उत्तर दूंगा ? मार्ग में लुट जाने की बात पर क्या उसे विश्वास होगा ? क्या यह स्थिति मेरे लिए अपमानजनक नहीं है ? तो अब क्या करना चाहिए?
चिन्ता में व्यग्र मुनि कुछ समय तक कोई निर्णय नहीं कर सके । भांति-भांति के विचार चित्त में उत्पन्न हुए और विनष्ट हुए । वह असमंजस में पड़ गए । संयम की विशिष्ट साधना के उद्देश्य से निकले साधक की ऐसी दयनीय दशा ! मन कितना प्रबल है । वह मनुष्य को कहां से कहां ले जाकर गिरा देता है।