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आध्यात्मिक आलोक
357 साधु के पास कोई उपकरण ऐसा नहीं होता जो अयाचित हो । याचना करने में उसे दैन्य का अनुभव भी नहीं होता और नहीं होना चाहिए । किन्तु यहां तो बात ही दूसरी थी । सिंह गुफावासी मुनि को संयम-जीवन के निर्वाह के लिए रत्नकंबल की आवश्यकता नहीं थी । वह कम्बल उनके संयम में सहायक नहीं था। यही नहीं, वरन् बाधक था । इसी कारण मुनि लज्जा और संकोच से धरती में गड़े जा रहे थे । राजा के समक्ष जाकर भी मुनि का मुंह सहसा खुल नहीं सका । वह थोड़ी देर मौन रहे। .
मुनि को दूसरी बार रत्न कम्बल के लिए आया देख दरबारियों को भी विस्मय हुआ । किसी ने सोचा-'हो न हो मुनि संग्रह के शिकार हैं।'
किसी ने कहा-"क्या रलकम्बल बेच कर पूंजी इकट्ठी करने की सोची है ?
तीसरा बोला-'वास्तव में यह साधु भी है या नहीं । साधु का वेश धारण करके कोई ठग तो नहीं है।'
इस प्रकार नाना प्रकार की टीकाएं होने लगीं । जितने मुंह उतनी बातें । मुनि चुपचाप उन्हें सुनते रहे । अन्त में उन्होंने अपनी करुण कहानी राजा को सुनाई। राजा का हृदय द्रवित हुआ और पुनः उन्हें रत्नकंबल मिल गया ।
रत्नकंबल पाकर मुनि को ऐसा हर्ष हुआ जैसे सिद्धि प्राप्त हो गई हो। वह तत्काल वापिस लौट पड़े। इस बार मुनि ने अत्यन्त सावधानी और सतर्कता के साथ यात्रा की और वे निर्विघ्न पाटलीपुर आकर रूपकोषा के भवन में प्रविष्ट हुए । अनेकानेक कष्ट सहन करने के पश्चात् प्राप्त इस सफलता पर वे अत्यन्त प्रसन्न थे। इतने प्रसन्न जैसे शत्रु का दुर्गम दुर्ग जीत लेने पर कोई सेनापति फूला नहीं समाता
हो।
नेपाल नरेश प्रत्येक व्यक्ति को सन्देह की दृष्टि से नहीं देखते थे । उनका मन्तव्य था कि संसार के सब मनुष्य समान नहीं हैं अतएव सब के साथ एक-सा व्यवहार करना उचित नहीं है। यही कारण था कि मुनि को दूसरी बार कम्बल की याचना करते देख कर दरबारी लोग जब तरह-तरह की बातें कर रहे थे, तब स्वयं नरेश ने मौन ही धारण किया । उन्होंने मुनि के चेहरे को पढ़ने का प्रयत्न किया और उनका कथन यथार्थ पाया । मुनि ने कहा-"मैं कन्धे पर रत्नकंबल लटकाकर जा रहा था कि लुटेरे आ धमके और ले गए ? मेरी इष्ट सिद्धि नहीं हुई, अतएव दूसरी बार आया हूं।"
नेपाल नरेश ने मुनि के कथन पर विश्वास किया और दूसरा रत्नकंबल प्रदान करने के साथ इस वार सावधानी बरतने की सूचना भी दी । नरेश की सूचना के