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आध्यात्मिक आलोक
353 इसके विरुद्ध यदि रमण करने योग्य कार्यों एवं भावों से ही विरमण कर लें तो यह विरति कैसी ? मान से विरत होने के बदले यदि विनय से, क्रोध के बदले . क्षमा से, हिंसा के बदले अहिंसा से और लोभ के बदले सन्तोष से विरत हो तो यह मिथ्या विरति है । साधक को वि-भाव से विरति करनी चाहिए, आत्मस्वरूप में रमण
और परपदार्थों से विरमण करना चाहिए । 'स्व' का परित्याग करके 'पर' में रमण करना ही समस्त दुःखों का मूल है । अतएव साधक को निज गुणों में रति करके परगुणों से विरति करनी चाहिए। इससे उलटी प्रवृत्ति रही तो आत्मा सदा जन्म-मरण के विषम चक्र में ही भटकती रहेगी | उसका त्राण नहीं हो सकेगा।
परम ज्ञानी और सच्चा साधक वही है जो हेय और उपादेय को भली-भांति समझ कर हेय का त्याग करता है और उपादेय को ग्रहण करता है । ज्ञान और विश्वास अनुकूल या समीचीन हो कर परिपुष्ट हो जाएं यही विरति है । परिपक्व दशा और अनुकूल मौसम होने पर वृक्ष में फल लगते हैं । ऐसे ही ज्ञान का परिपाक होने पर विरति की प्राप्ति होती है । हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से अलग होना विरति है । स्मरण रखना चाहिए कि साधारणतया पहले बाह्य पाप कर्मों से विरति होती है, तत्पश्चात अन्तरंग पापों से विरति हो जाती है । महर्षियों ने हिंसा, झुठ, चोरी आदि बाह्य पापों को त्यागने का महत्व इसी कारण दर्शाया है । जो मनुष्य इनका त्याग कर देता है, उसके अन्तरंग पाप, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह आदि शनैः शनैः शान्त हो जाते हैं । कारण यह है कि क्रोध आदि आन्तरिक पाप हिंसा आदि बाह्य पापों के कारण ही बढ़ते हैं, अतः जब बाह्य पाप घट जाते हैं तो आन्तरिक पाप भी स्वतः घट जाते हैं ।।
कोई हमारी जमीन या अन्य वस्तु बलपूर्वक छीन लेता है या शरीर पर आघात करता है तो क्रोध उत्पन्न होता है। ऐसी स्थिति में जो जमीन का त्याग कर देता है उसके क्रोध का एक कारण कम हो जाता है । इस प्रकार जितना क्षेत्र बाह्य पापों का घटा उतना ही कषायों के विस्तार का क्षेत्र घटा ।
जो शरीर के प्रति ममतावान् है उसे शरीर के प्रतिकूल आचरण करने पर रोष उत्पन्न होता है, किन्तु जिसने शरीर को पर-पदार्थ समझ लिया है और जिसे उसके प्रति किंचित भी ममता नहीं रह गई है वह शरीर पर घोर से घोर आघात लगने पर भी रुष्ट नहीं होता । ऐसे अनेक महर्षियों की पुण्यगाथाएं हमारे शास्त्रों में विद्यमान हैं जिन्होंने भीषण शारीरिक आघातों के होने पर भी अखण्ड समभाव रखा और लेश मात्र भी रोष का उन्मेष नहीं होने दिया । गजसुकुमार के शरीर की वेदना क्या सामान्य थी ? स्कंधक मुनि का स्मरण क्या हमारे रोंगटे नहीं खड़े कर देता ? मेतार्य