________________
[५५]
भोगोपभोग-मर्यादा भगवान महावीर धर्म तीर्थंकर थे । उन्होंने ऐसे धर्मतीर्थ की प्ररूपणा की है जो प्रत्येक प्राणी और प्रत्येक युग के लिए समान रूप से हितकारी है । अढ़ाई हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी जब महावीर द्वारा उपदिष्ट धर्म के सिद्धान्तों के मर्म पर विचार करते हैं तो ऐसा लगता है, मानो इसी युग को लक्ष्य करके उन्होंने इन सिद्धान्तों का उपदेश किया है । उनके सिद्धान्त बहुत गंभीर और व्यापक हैं तथापि भगवान ने श्रुतधर्म और चारित्र धर्म की सीमा में सभी का समावेश कर दिया है । .
श्रुतधर्म का सम्बन्ध विचार के साथ और चारित्र धर्म का सम्बन्ध आचार के साथ है । आचार का उद्गम विचार है । विचार को बीज मान लिया जाय तो आचार उससे फूटने वाला अंकुर, पौधा, वृक्ष आदि सभी कुछ है। पहले विचार का निर्माण होता है फिर आचार. उत्पन्न होता है । हो सकता है कि कभी विचार
आचार के रूप में परिणत न हो । बहुत बार ऐसा होता भी है । मगर इससे यह सिद्ध नहीं होता कि विचार आचार का कारण नहीं है। ऐसे अवसर पर यही मानना होगा कि विचार में शिथिलता है, दृढ़ता नहीं आई है । उसे समुचित पोषण-सामग्री नहीं मिली है।
विचार और आचार जीवन के दो पक्ष हैं । दोनों पक्ष यदि सशक्त होते हैं तो जीवन गतिशील बनता है और ऊँची उडान भरी जा सकती है। दोनों में से एक के अभाव में जीवन प्रगतिशील नहीं बन सकता ।
____ श्रृंतधर्म में ज्ञान-दर्शन का समावेश है और चारित्र धर्म में आचार के व्रत, . नियम, उपनियम आदि सभी अंगों का समावेश है।
दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि श्रुतधर्म मूल है तो व्रत-नियम आदि. उसके फल हैं । श्रुतधर्म रूपी मूल अच्छा हो तो पत्र-पुष्प-फल आदि भी मजबूत हा हागे । मूल के कमजोर होने से फल भी कमजोर होते हैं । फलों में सड़ांध या