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आध्यात्मिक आलोक
___ भूख की अन्तर्जाला से जो जल रहा है, वह करुणाहीन बन जाय तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है । सर्पिणी १०८ अण्डे देती है परन्तु उन्हें खा जाती है । कुतिया भी भूख की मारी अपने बच्चे को निगल जाती है । सद्यःप्रसूता कुतिया को भोजन देने की प्रथा इसी कारण प्रचलित है । ऐसे प्राणी उपदेश के पात्र नहीं हैं क्योंकि असह्य भूख से प्रेरित हो कर ही वे ऐसा करते हैं। मगर जिस मनुष्य में इतना सामर्थ्य है कि अपनी भूख मिटा कर दूसरों को भी खिला दे, वह यदि करुणाहीनता का काम करता है तो यह स्थिति अत्यन्त दयनीय और शोचनीय है।
जो मनुष्य स्थावर और त्रस जीवों के बचाव का ध्यान रखने वाला है, उससे क्या यह आशा की जा सकती है कि वह मनुष्यों के उत्पीड़न में निमित्त बनेगा ? वह जान बूझ कर कदापि ऐसा नहीं करेगा कि किसी का जीवन या किसी की जीविका का उच्छेदन करके अपना स्वार्थ सिद्ध करे । जो भगवद्भक्तिपरायण है, उससे ऐसी आशा नहीं की जा सकती, क्योंकि भगवान की भक्ति का उद्देश्य अपने जीवन को सद्गुणों के सौरभ से सुरभित करना है, परमात्मा के गुणों को अपनी आत्मा में प्रकट करना है । परमात्मिक गुणों की अभिव्यक्ति सम्यक् चारित्र के द्वारा ही संभव है अतएव भगवद भक्त पुरुष सम्यक् चारित्र की आराधना अवश्य करेगा ।
सम्यक् चारित्र के दो रूप हैं-संयम और तप । संयम नवीन कर्मों के आस्रव बंध को रोकता है और तप पूर्व संचित कर्मों को क्षय करता है । मुक्ति प्राप्त करने के लिए इन दोनों की अनिवार्य आवश्यकता है। किसी सरोवर को सुखाने के लिए दो काम करने पड़ते हैं-नये आने वाले पानी को रोकना और पहले के सचित को उलीचना । इन उपायों से सरोवर रिक्त हो जाता है। इसी प्रकार आत्मा को कर्म-रहित बनाने के लिए भी दो उपाय करने पड़ते हैं-संयम की आराधना करके नवीन कर्मों के बन्ध को रोक देना पड़ता है और तप के द्वारा पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा करनी पड़ती है। इन दोनों उपायों से आत्मा पूर्ण निष्कर्म अवस्था को प्राप्त कर लेती है।
इन्द्रिय और मन की वृत्तियों पर नियन्त्रण करके पाप के खुले द्वार को रोकना संयम कहलाता है । यह संयम धर्म भी दो प्रकार का है-समस्त पापों का निरोध श्रमण धर्म अथवा सर्वविरति संयम कहलाता है और देशतः पापों का निरोध देशविरति संयम।
"अकरणान्मन्द करणं श्रेयः' अर्थात् कुछ भी न करने की अपेक्षा थोड़ा करना अच्छा है, इस कहावत के अनुसार पापों को सीमित रूप में लाकर जीवन को पवित्र बनाने वाला उससे अच्छा है जो पापों को बिल्कुल नहीं छोड़ता ।