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आध्यात्मिक आलोक
__ मनसा, वाचा, कर्मणा हिंसा, असत्य और चोरी आदि पापों का त्याग करना, इन्हें दूसरों से नहीं करवाना और इन पापों को करने वाले का अनुमोदन न करना पूर्ण सामायिक का आदर्श है । जो सत्वशाली महापुरुष इस आदर्श तक पहुँच सकें, वे धन्य हैं । जो नहीं पहुँच सकें, उन्हें उसकी ओर बढ़ना चाहिए । इस आदर्श की
ओर जितने भी कदम आगे बढ़ सकें, अच्छा ही है । कोई व्यक्ति यदि ऐसा सोचता है कि मन स्थिर नहीं रहता, अतएव माला फेरना छोड़ देना चाहिए, यह सही दिशा नहीं है । ऐसा करने वाला कौन-सा भला काम करता है ? मन स्थिर नहीं रहता तो स्थिर रखने का प्रयत्न करना चाहिए । असफल होने के पश्चात् पुनः सफलता के लिए उत्साहित होना चाहिए न कि माला को खूटी पर टांग देना चाहिए । साधना के समय मन इधर-उधर दौड़ता है तो उसे शनैः शनैः रोकने का प्रयत्न करना चाहिए, किन्तु काया और वचन जो वश में हैं, उन्हें भी क्यों चपलता युक्त बनाते हो ? उन्हें तो एकाग्र रखो, और मन को काबू में करने का प्रयत्न करो । यदि काया और वाणी सम्बन्धी अंकुश भी छोड़ दिया गया तो घाटे का सौदा होगा । यह सत्य है कि मन अत्यन्त चपल है, हठीला है और शीघ्र काबू में नहीं आता । किन्तु उस पर काबू पाना असंभव नहीं है । बार-बार प्रयत्न करने से अन्ततः उस पर काबू पाया जा सकता है। किसी उच्च स्थान पर पहुँचने के लिए एक-एक कदम ही आगे बढ़ना पड़ता है । आपका मन जो बेलगाम घोड़े की तरह दौड़ भाग कर रहा है, उसे काबू में लाने का यही उपाय है । साधक को सजग रह कर उसका मोड़ बदलना चाहिए।
आंख की पुतली जैसे ऊपर-नीचे होती रहती है वैसे ही मन भी दौड़ता रहता है और कहीं मोह की सहायता उसे मिल जाय तब तो कहना ही क्या है ? वह बहुत गड़बड़ा जाता है। मगर गड़बड़ाये मन को भी काबू में लाया जा सकता है।
मानव-जीवन में मन का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है । वह साधना का प्रधान आधार है, क्योंकि वही उत्थान एवं पतन का कारण है। कहा भी है
मनः एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । .
• बन्ध और मोक्ष का प्रधान कारण मन ही है । जो मन को जीत लेता है, इन्द्रियां उसकी दासी बन जाती हैं। अतएव मनोविजय के लिए सतत प्रयत्न करना चाहिए । धर्म-शिक्षा या अभ्यास एवं वैराग्य के द्वारा मन को वशीभूत किया जाता है।