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आध्यात्मिक आलोक
349 कभी-कभी दीर्घकाल तक कठिन साधना करने वालों को भी मन विचलित कर देता है और साधना से डिगा देता है । सिंह गुफावासी मुनि की साधना मामूली नहीं थी । मगर उनका मन मचल गया । स्थूलभद्र के प्रति ईर्ष्या उसने जगाई और उनके समकक्ष प्रतिष्ठा पाने की लोभ वृत्ति उत्पन्न कर दी । मुनि असावधान होकर उसके चक्कर में आ गए । रूपकोषा के द्वार पर पहुँचे और उसे सन्तुष्ट करने के लिए रत्नकंबल प्राप्त करने को चल दिए । व्रत-नियमों की साधना को भूल गए। वह साध्य अर्थात काम विजय को सिद्ध करने के संकल्प से चले थे परन्तु साधन उलटा हो गया । रत्नकंबल को वह साधन मान बैठे ।
नेपाल की दुर्गम घाटियों को पार करके वे नेपाल की राजधानी तक पहुँच गए । त्यागी और तपस्वी मुनि के आगमन को देख नेपाल-नरेश ने अपने को सौभाग्यशाली मान कर उनका सम्मान किया । माना कि घर बैठे गंगा आ गई है, प्रांगण में कल्पवृक्ष उग आया है । मुनि अर्धनग्न स्थिति में वहाँ पहुँचे, अतएव उनके प्रति राजा का आदरभाव अधिक जगा | नेपाल नरेश ने शिष्टाचार का अनुसरण करते हुए कहा-"भगवन् ! आदेश दीजिए आपकी क्या सेवा की जाय ?"
___ मुनिजी 'सोऽहम्' का नहीं प्रत्युत रत्नकंबल का जप करते हुए वहां पहुंचे थे, अतएव राजा के कहने पर उन्होंने रत्नकंबल की ही मांग की।
रत्नकंबल इधर-उधर लुटाये जा रहे थे, तो मुनि की मांग की पूर्ति करना क्या बड़ी बात थी ? एक सुन्दर रत्न-जटित कंबल लाकर राजपुरुष ने मुनि को अर्पित किया। मुनि के सन्तोष और उल्लास का पार न रहा । तपश्चरण से जन्म-जन्मान्तर में सिद्धि प्राप्त होती है परन्तु इन मुनि को अपने तप की सिद्धि तत्काल प्राप्त हो गई। मुनि रत्नकंबल पा कर मानो कृतार्थ हो गए । अत्यन्त प्रसन्नता के साथ वे तुरन्त पाटलीपुत्र लौटने लगे।
भगवान् का प्रीतिभाजन बनने के लिए आत्मबल चाहिए । दैवी और दानवी बाधाओं से न डरने वाले दृढ़-संकल्प भक्त पर भगवान प्रसन्न होते हैं । कमजोरों पर वे भी प्रसन्न नहीं होते।
मुनि को रत्नकंबल क्या मिला मानो अपनी समग्र साधना का अभीष्ट फल मिल गया । बड़े जतन से उसे संभाले वे पाटलीपुत्र की ओर तेजी से बढ़ रहे थे। होनहार टाले नहीं टलती । मनुष्य क्या सोचता है और क्या हो जाता है ? भवितव्यता के आगे समस्त मनोरथ एक और धरे रह जाते हैं । मुनि तेज विहार करते