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आध्यात्मिक आलोक
345 प्रतीकार नहीं कर सकता, कुछ बिगाड़ नहीं सकता । अतएव पशु के प्रति दयालु होने पर भी उसे स्वामी की आज्ञा का पालन करने के लिए उसके प्रति क्रूरतापूर्ण व्यवहार करना पड़ता है। अतएव श्रावक ऐसी आजीविका नहीं करता जिससे पशुओं के प्रति निर्दयता का व्यवहार करना पड़े।
___कई लोग पशुओं की दौड़ की होड़ लगाते हैं और जो पशु दौड़ में विजयी होता है, उसके स्वामी को पुरस्कार मिलता है । घोड़ों की दौड़ आजकल भी होती है। किन्तु ऐसा करना उनकी जान के साथ खिलवाड़ करना है।
मनुष्य अपनी उत्कंठा तथा कौतुहलवृत्ति का पोषण करने के लिए पशुओं को सताता है और अनर्थ दंड के पाप का भागी बनता है। स्मरण रखना चाहिए कि जहां आवश्यकता की पूर्ति नहीं है, वहां पशुओं के साथ किया जाने वाला दुर्व्यवहार अर्थदण्ड की सीमा से बाहर निकल कर अनर्थदण्ड की सीमा में चला जाता है।
धर्म की साधना करने वाले मुमुक्षु को बेलगाम नहीं होना चाहिए । मुमुक्षु का दर्जा वही प्राप्त कर सकता है जो अर्थ और काम पर अंकुश लगाता है जिसने अर्थ और काम पर अंकुश लगाना सीखा ही नहीं है, जप, तप आदि साधना जिसके लिए गौण या नगण्य है, वह वास्तव में साधक नहीं कहा जा सकता । वह गिरता-गिरता कहां तक जा पहुंचेगा, नहीं कहा जा सकता।
गुणों को छोड़ कर गुरु या परमात्मा की आराधना कितनी भी की जाय, बेकार है । ज्ञान, दर्शन और चरित्र कोई अलग देवता नहीं हैं । गुणी के बिना गुण नहीं होते और गुणों के बिना गुणी ( द्रव्य ) नहीं रह सकता । एक दूसरे के बिना दोनों के अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती । जैसे-हाथ, पैर, पीठ, पेट आदि अंगोपांगों का समूह ही शरीर कहा जाता है, इनसे पृथक शरीर की कहीं सत्ता नहीं है और शरीर से पृथक उसके अंग-उपांगों की भी सत्ता नहीं है, इसी प्रकार गुणों का समूह ही द्रव्य है और द्रव्यं के अंश धर्म ही गुण हैं । परस्पर निरपेक्ष गुण या गुणी का अस्तित्व नहीं है ।
अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु सभी जीवद्रव्य हैं। इनकी उपासना, आराधना और भक्ति कर लेना ही पर्याप्त है । गुणों का साधन करने की क्या आवश्यकता है ? इस प्रकार की भ्रान्ति किसी को हो सकती है। किन्तु भूलना नहीं चाहिए कि अर्हन्त आदि गुणों के कारण ही वन्दनीय हैं । वास्तव में हम गुणी के द्वारा गुणों को ही वन्दन करते हैं । गुणों को वन्दन करने का उद्देश्य यह है कि हमारे चित्त में गुणों की महिमा अंकित हो जाय और हम उनका लाभ ले सकें ।