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आध्यात्मिक आलोक अन्य वृक्ष से गोंद निकाल कर उसका सेवन करना । अनेक परिपक्व वस्तुएं भी बर्फ आदि के साथ रखी जाती हैं जिससे अधिक समय सुरक्षित रह सकें-जल्दी खराब न हो जाएं । दूध, दही, घृत आदि अचित्त पदार्थ हैं तथापि यदि सचित्त से सम्बन्धित हों तो उनको ग्रहण करना भी अतिचार है।
(३) परी पकी नहीं, पूरी कच्ची भी नहीं-गृहस्थी में ऐसे भी खाद्य-पदार्थ तैयार किये जाते हैं जो अधपके या अधकच्चे कहे जा सकते हैं । मोगरी आदि वनस्पतियों को तवे पर छोंक कर जल्दी उतार लिया जाता है । उनका पूरा परिपाक नहीं होता । उनमें सचित्तता रह जाती है । अतएव जो सचित्त का त्यागी है, उसके लिए ऐसे पदार्थ ग्राह्य नहीं हैं। उनके सेवन से व्रत दूषित होता है ।
(४) अभिपक्वाहार-इसका अर्थ है सड़े गले फल आदि का सेवन करना। ऐसे पदार्थों के सेवन से त्रसजीवों की हिंसा होती है और असावधानी में वे खाने में भी आ सकते हैं। प्रत्येक खाद्य पदार्थ की एक अवधि होती है तब तक वह ठीक रहता है । अधिक समय बीत जाने पर वह सड़ जाता है, गल जाता है या घुन जाता है । उसमें जीव-जन्तु उत्पन्न हो जाते हैं । ऐसी स्थिति में वह खाद्य नहीं रहता । अधिक दिनों तक रखने से मिष्ठानों में भी जन्तु उत्पन्न हो जाते हैं । वह न खाने योग्य रहते हैं और न खिलाने योग्य | पशुओं को भी ऐसी चीज नहीं खिलाना चाहिए । अनुचित लालच और अविवेक के कारण मनुष्य इन्हें खाकर या खिलाकर महाहिंसा के कारण बन जाते हैं । इससे अनेक रोगों की भी उत्पत्ति होती है। अन्यान्य खाद्य वस्तुओं में भी नियत समय के पश्चात जीवों की उत्पत्ति हो जाती है । अतएव गृहस्थों को, विशेषतः बहिनों को इस विषय में खूब सावधानी बरतनी चाहिए। खाने के लिये उपयोग करने से पहले प्रत्येक खाद्य पदार्थ की बारीकी से जाँच कर लेनी चाहिए । बहुत बार खाद्य वस्तु में विकृति तो हो जाती है परन्तु देखने वाले को सहसा मालूम नहीं होती । अतएव वस्तु के वर्ण, गंध आदि की परीक्षा कर लेनी चाहिए | अगर वर्ण, गंध आदि में परिवर्तन हो गया हो तो उसे अखाधं समझना चाहिए। अगर खान-पान सम्बन्धी मर्यादा पर पूरा ध्यान दिया जाय और बहिनें विवेक एवं यतना से काम लें तो बहुत से निरर्थक पापों से बचाव हो सकता है और स्वास्थ्य भी संकट में पड़ने से बच सकता है ।
मनुष्य बाहरी तुच्छ हानि-लाभ की सोचता है, मगर यह नहीं देखता कि समय बीत जाने के कारण यह वस्तु त्याज्य हो गई है। यदि इसका सेवन किया जाएगा, तो कितनी हिंसा होगी, यह विचार बहुत कम लोगों में होता है। श्रावक-श्राविका की . दृष्टि पाप से बचने की होती है, आर्थिक हानि-लाभ उसकी तुलना में गौण होते हैं।