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आध्यात्मिक आलोक
333 में ऐसे कंबल देते हैं। कंबल की कीमत तो कुछ देनी नहीं है, सिर्फ नेपाल तक जाने का साहस करना है । नेपाल जंगल प्रधान देश है और पैदल चलने वालों को पद-पद पर भय बना रहता है। अगर आप में इतनी निर्भयता हो तो ही वहां जाने का साहस कीजिएगा, अन्यथा रहने दीजिए।"
निर्भयता और साहस की बात सुनकर मुनि के हृदय में अहंकार जागा । सोचने लगे-'भय को जीतने में कौन मेरी बराबरी कर सकता है । मेरे पास साहस का जितना बल है, अन्य किसके पास हो सकता है । रूपकोषा की मांग मेरे लिए एक चुनौती है । इस चुनौती का सामना न किया तो मैंने संयम क्या पाला अब तक भाड़ ही झौंकी, ऐसा समझना चाहिए।'
मुनि के मन में अज्ञात रूप में अनुराग के अंकुर फूट निकले थे, ऊपर से उन्हें चुनौती भी मिल गई । उनके ज्ञान की छाप राग की छाप से दब गई । विवेक पराजित हो गया, राग विजयी हो गया । निर्भयता, जो अब तक उनका भूषण थी, विवेक एवं समभाव के अभाव में दूषण बन गई । वह उन्हें पतन की ओर घसीटने लगी । हृदय में राग का जो तूफान उठा, उससे विवेक का दीपक बुझ गया ।
नेपाल पहुँचना मामूली बात नहीं । वहां जीवन के उपभोग की, विलास की, सामग्रियां कम हैं और वहां के निवासियों की आवश्यकताएं भी कम हैं वहां के लोग प्रायः निर्भय रहते हैं। परन्तु मुनि को वास्तविकता का पता नहीं था । वह तो किन्हीं अन्य विचारों में ही चक्कर लगाने लगे थे।
रूपकोषा की भावना मुनि को सत्पथ पर लाने की ही थी । वह उन्हें असंयम और अधःपतन की ओर नहीं ले जाना चाहती थी । मुनि के विलुप्त विवेक को जागृत करना उसका लक्ष्य था । उनका मानसिक बल उभर आए और वे जिन अवांछनीय वृत्तियों के वशीभूत हो रहे हैं, उनसे सावधान हो जाएं, यही उसकी कामना थी । इसी उद्देश्य से उसने रत्नजटित कंबल का नाटक रचा था । वह मुनि को स्खलना से बचाने का प्रयास कर रही थी।
__ इसी प्रकार हमें भी समाज की स्खलनाओं को ध्यान में रखना है और हृदय में घुसे हुए मलिन भावों को जीतना है। ऐसा करने से हमारा इहलोक-परलोक दोनों में कल्याण होगा।