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आध्यात्मिक आलोक
339 वर्तता है। उसके परिणामों की धारा गिरती जाती है । भगवान् महावीर ने साधकों को सचेत किया है
'जाए सद्धाए णिक्खंतो तमेव अणु पालए । जिस श्रद्धा, आत्मबल, उत्साह और उल्लास से व्रतों को धारण किया है, उसे कम न होने दो । एक बार अन्तर में जो ज्योति जागृत हुई है, वह मन्द न पड़ने पाए, बुझ न जाए, साधक को सदैव इस बात की सावधानी रखनी चाहिए ।
सिंहगुफावासी मुनि जब रूपकोषा के द्वार पर पहुँचा तब उसका अध्यवसाय अलग प्रकार का था। भिक्षा अंगीकार करने पर उस अध्यवसाय में परिवर्तन हो गया। निस्पृह साधक कभी नहीं फिसलता, स्पृहवान कभी भी फिसल सकता है । किसी ने ठीक ही कहा है
'चाह छोड़, धीरज धरे तो हो बेड़ा पार । मानसिक दुर्बलता मनुष्य को अधःपतन की ओर ले जाती है । सिंहगुफावासी मुनि ने दुर्बलता से ग्रस्त होकर रूपकोषा से कहा-"नेपाल का मार्ग कितना ही दुर्गम हो, भले अगम्य ही हो, मैं वहां से रत्नजटित कंबल ले आऊंगा । जिसने सिंह की गुफा में चार मास-एक सौ बीस दिन निर्भयता के साथ व्यतीत किये हों, उसे जंगल से क्या भय ? मैंने भय की वृत्ति पर पूरी तरह विजय पा ली है, अतएव आप मेरी बात पर अविश्वास मत लाइए । रत्नकंबल मैं ला दूंगा, किन्तु अभी यह साधना पूर्ण होने दीजिए।"
एक चाह से दूसरी चाह उत्पन्न होती है । रूपकोषा समझ गई कि मुनि का मन विचलित हो गया है । वह इस रंगमहल के प्रलोभन में फंस गया है । मगर पूरी कसौटी किए बिना वह मानने वाली नहीं । मुनि को स्थिर करने का उसने निश्चय कर लिया था । अतएव उसने कहा-"आप निडर और आत्मजयी वीर हैं, किन्तु वर्षा प्रारम्भ होने पर मार्ग में कीचड़ ही कीचड़ हो जाएगा । चोरों और हिंसक पशुओं का डर रहेगा । अतएव रत्नकंबल पहले ही ले आइए।"
रूपकोषा का आग्रह मुनि को प्रीतिकर नहीं लगा । उसके मन में निराशा का भाव उदित हुआ और शीघ्र ही विलीन भी हो गया । दूसरा कोई मार्ग न देख कर मुनि रत्नकंबल लाने के लिए चल पड़े।
राग के वशीभूत होकर मनुष्य क्या नहीं करता ? राग उसके विवेक को आच्छादित करके उचित-अनुचित सभी कुछ करवा लेता है । वह प्राण हथेली में लेकर अतिसाहस का कोई भी काम कर सकता है।