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[५८] कर्मादान के भेद .
जिसका समभाव, करुणाभाव एवं मैत्रीभाव इतना व्यापक बन जाता है कि वह त्रस और स्थावर-सभी प्राणियों के प्रति अहिंसक हो जाय, जिसके जीवन में संसार के किसी भी सजीव अथवा निर्जीव पदार्थ सम्बन्धी आसक्ति नहीं रह जाती, जो सब प्रकार के पापमय कृत्यों से अपने को पृथक कर लेता है और जो महाव्रतों का परिपालन करने में समर्थ होता है, वही श्रमणधर्म के पालन का अधिकारी है । श्रमणधर्म का पालन करने के लिए गृहस्थी से नाता तोड़कर एकान्त साधना से नाता जोड़ना पड़ता है । किन्तु श्रावक का जीवन मात्र एक मर्यादा के साथ, आचार से परिपूर्ण होता है । वह अपनी परिस्थिति और सामर्थ्य के अनुसार देशविरति का आचरण करता है । श्रावक के व्रतमय जीवनादर्श का सम्यक् प्रकार से निरूपण हमें उपासकदशांग सूत्र में मिलता है। उसमें भगवान महावीर के समय के दस श्रावकों का विवरण है, जिससे श्रावकधर्म की एक स्पष्ट रूपरेखा हमारे समक्ष खिंच आती है ।
उपासकदशांग में पहला चरित आनन्द श्रावक का है । आनन्द के माध्यम से उसमें श्रावक के बारह व्रतों पर प्रकाश डाला गया है । पहले व्रतों का निरूपण
और फिर उनके अतिचारों का प्रतिपादन यह क्रम उसमें रखा गया है । आनन्द ने विभिन्न व्रतों में क्या-क्या मर्यादाएं रखीं, यह भी विशद् रूप से वर्णन वहां मिलता है ।
आनन्द सम्बन्धी उल्लिखित वर्णन केवल आनन्द के लिए ही नहीं, देशविरति का पालन करने वाले प्रत्येक साधक के लिए है । उस वर्णन के प्रकाश में श्रावक अपने व्रतमय जीवन का निर्माण कर सकता है और आदर्श श्रावक बनकर अपने जीवन को सफल कर सकता है । यहां कर्मादान का विचार करना है । कल 'कर्मादान' शब्द के अर्थ पर विचार किया जा चुका है । ये कर्मादान पन्द्रह हैं, यह भी कहा जा चुका है । इस वर्गीकरण में उन सभी कर्मों का समावेश कर लेना
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